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अष्टम शतक : उद्देशक - १
वर्ण- गन्ध-रस- स्पर्श-संस्थानरूप में परिणत जानना चाहिए।
३९. एवं जहाऽऽणुपुव्वीए नेयव्वं जाव जे पज्जत्तासव्वट्टसिद्ध अणुत्तरोवबाइय जाव परिणता ते वण्णतो कालवण्णपरिणया वि जाव आयतसंठाणपरिणया वि । दंडगा ६ ।
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[३९] इसी प्रकार क्रमश: सभी (पूर्वोक्त विशेषण - विशिष्ट जीवों के प्रयोग - परिणत पुद्गलों) के विषय में जानना चाहिए। यावत् जो पुद्गल पर्याप्त - सर्वार्थसिद्ध- अनुत्तरोपपातिक - देव-पंचेन्द्रिय-वैक्रियतैजस-कार्मण-शरीरप्रयोग- परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण रूप में यावत् संस्थान से आयत संस्थान तक परिणत हैं । (दण्डक छठा ।)
सप्तम दण्डक
४०.[१] जे अपज्जत्तासुहुमपुढवि० एंगिंदिरयओरालिय- तेया-कम्मासरीरप्पयोगपरिणया ते वणओ कालवण्णपरि० जाव आययसंठाणपरि० वि ।
[४०-१] जो पुद्गल अपर्याप्तक-सूक्ष्म- पृथ्वीकायिक- एकेन्द्रिय - औदारिक- तैजस-कार्मणशरीर-प्रयोगपरिणत हैं, वे भी इसी तरह वर्णादि-परिणत हैं।
[ २ ] जे पज्जत्तासुहुमपुढवि० एवं चेव ।
[४०-२] इसी प्रकार पर्याप्तक- सूक्ष्म- पृथ्वीकायिक- एकेन्द्रिय-औदारिक- तैजस- कार्मणशरीर-प्रयोगपरिणत हैं, वे भी इसी तरह वर्णादि-परिणत हैं ।
४१. एवं जहाऽऽणुपुव्वीए नेयव्वं जस्स जति सरीराणि जाव जे पज्जत्तासव्वट्टसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिंदियवेडव्विय - तेया- कम्मासरीर जाव परिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि जाव आयतसंठाणपरिणया वि । दंडगा ७ ।
[४१] इसी प्रकार यथानुक्रम से (सभी जीवों के विषय में) जानना चाहिए। जिसके जितने शरीर हों, उतने कहने चाहिए; यावत् जो पुद्गल पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध- अनुत्तरोपपातिकदेव-पंचेन्द्रिय-वैक्रिय-तैजस-कार्मणशरीर-प्रयोग - परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में, यावत् संस्थान से आयत - संस्थानरूप में परिणत हैं । (दण्डक सातवाँ।)
अष्टम दण्डक
४२.[ १ ] जे अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइयएगिंदियफासिंदियपयोगपरिणया ते वण्णओ कालवपरिणया जाव आययसंठााणपरिणया वि ।
[४२-१] जो पुद्गल अपर्याप्तक-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक- एकेन्द्रिय- स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग- परिणत हैं, वे वर्ण से काले वर्ण के रूप में परिणत हैं, यावत् संस्थान से आयत-संस्थान के रूप में परिणत हैं।
[२] जे पज्जत्तासुहुमपुढवि० एवं चेव ।
[४२-२] जो पुद्गल पर्याप्तक-सूक्ष्म- पृथ्वीकायिक- एकेन्द्रिय- स्पर्शेन्द्रिय- प्रयोग परिणत हैं, वे भी