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________________ २२० व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र चक्षुरिन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं। (चौथ दण्डक।) पंचम दण्डक ____३६.[१]जे अफ्जत्तासुहुमपुढविकाइयएगिदियओरालिय-तेय-कम्मासरीरप्पयोगपरिणया ते फासिंदियपयोगपरिणया। जे पजत्तासुहुम० एवं चेव। [३६-१] जो पुद्गल अपर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-तैजस-कार्मणशरीर-प्रयोगपरिणत हैं, वे स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं। जो पुद्गल पर्याप्त-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-तैजसकार्मण शरीर-प्रयोग-परिणत हैं, वे भी स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं। [२] बादर० अपजत्ता एवं चेव। पजत्तगा वि। [३६-२] अपर्याप्तक-बादरकायिक एवं पर्याप्तबादर-पृथ्वीकायिक-औदारिकादि शरीरत्रय-प्रयोगपरिणतपुद्गल के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। ३७. एवं एएणं अभिलावेणं जस्स जति इंदियाणि सरीराणि य ताणि भाणियव्वाणि जाव जे पजत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देवपंचिंदिय-वेउल्विय-तेया-कम्मासरीरपयोगपरिणया ते सोइंदिय-चक्खिंदिय जाव फासिंदियपयोगपरिणया। दंडगा ५। [३७] इसी प्रकार इस अभिलाप के द्वारा जिस जीव के जितनी इन्द्रियां और शरीर हों, उसके उतनी इन्द्रियों तथा उतने शरीरों का कथन करना चाहिए। यावत् जो पुद्गल पर्याप्त-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोपपातिककल्पातीतदेव-पंचेन्द्रिय-वैक्रिय-तैजस-कार्मणशरीर-प्रयोग-परिणत हैं, वे श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं। (दंडक पाँचवां।) छठा दण्डक ३८.[१] जे अपजत्तासुहुमपुढविकाइयएगिंदियपयोगपरिणया ते वण्णतो कालवण्णपरिणया वि, नील०, लोहिय०, हालिद्द०, सुक्किल०। गंधतो सुब्भिगंधपरिणया वि, दुब्भिगंधपरिणया वि। रसतो तित्तरसपरिणया वि, कडुयरसपरिणया वि, कसायरसप०, अंबिलरसप०, महुररसप० । फासतो कक्खडफासपरि० जाव लुक्खफासपरि०।संठाणतो परिमंडलसंठाणपरिणया विवट्ठ० तंस० चउरंस० आयतसंठाणपरिणया वि। ___ [३८-१] जो पुद्गल अपर्याप्तक-सूक्ष्म-पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से कृष्णवर्ण, नीलवर्ण, रक्तवर्ण, पीत (हारिद्र) वर्ण एवं श्वेतवर्ण रूप से परिणत हैं, गन्ध से सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध रूप से परिणत हैं, रस के तीखे, कटु, काषाय (कसैले), खट्टे और मीठे इन पाँचों रस-रूप में परिणत है, स्पर्श से कर्कशस्पर्श यावत् रूक्षस्पर्श के रूप में परिणत हैं और संस्थान से परिमण्डल, वृत्त, त्र्यंस (तिकोन), चतुरस्त्र (चौकोर) और आयत, इन पांच संस्थानों के रूप में परिणत हैं। [२] जे पज्जत्तासुहुमपुढवि० एवं चेव। [३८-२] जो पुद्गल पर्याप्त-सूक्ष्म पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत हैं, उन्हें भी इसी प्रकार
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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