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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [२१ उ.] कालोदायी ! क्रुद्ध (कुपित) अनगार की निकली हुई तेजोलेश्या दूर जाकर उस देश में गिरती है, जाने योग्य देश (स्थल) में जाकर उस देश में गिरती है। जहाँ वह गिरती है, वहाँ अचित्त पुद्गल भी अवभासित (प्रकाशयुक्त) होते हैं, यावत् प्रकाश करते हैं।
विवेचन—प्रकाश और ताप देने वाले अचित्त प्रकाशमान पुद्गलों की प्ररूपणा–प्रस्तुत दो सूत्रों में स्वयं प्रकाशमान अचित्त प्रकाशक, तापकर्ता एवं उद्योतक पुद्गलों की प्ररूपण की गई है।
सचित्तवत् अचित्त तेजस्काय के पुद्गल—सचित्त तेजस्काय के पुद्गल तो प्रकाश, ताप, उद्योत आदि करते ही हैं, वे अवभासित यावत् प्रकाशित भी होते ही हैं, किन्तु अचित्त पुद्गल भी अवभासित होते एवं प्रकाश, ताप, उद्योत आदि करते हैं, यह इस सूत्र का आशय है। कुपित साधु द्वारा निकाली हुई तेजोलेश्या के पुद्गल अचित्त होते हैं। कालोदायी द्वारा तपश्चरण, संल्लेखना और समाधिपूर्वक निर्वाणप्राप्ति
२२. तए णं से कालोदाई अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता बहूहिं चउत्थ-छट्ठट्ठम जाव अप्पाणं भावेमाणे जहा पढमसए कालासवेसियपुत्ते ( स० १ उ० ९ सु० २४) जाव सव्वदुक्खप्पहीणे। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०।
॥सत्तमे सए : दसमो उद्देसो समत्तो॥
॥ सत्तमं सतं समत्तं ॥ _[२२] इसके पश्चात् वह कालोदायी अनमार श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार करते हैं। वन्दन-नमस्कार करके बहुत-से चतुर्थ (भक्त-प्रत्याख्यान-उपवास), षष्ठ (भक्त-प्रत्याख्यान-दो उपवासबेला), अष्टम (भक्त-प्रत्याख्यान तेला) इत्यादि तप द्वारा यावत् अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरण करने लगे; यावत् प्रथम शतक के नौवें उद्देशक (सू. २४) में वर्णित कालास्यवेषीपुत्र की तरह सिद्ध-बुद्ध, मुक्त यावत् सब दुःखों से मुक्त हुए।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है।'
विवेचन–कालोदायी अनगार द्वारा तपश्चरण, संल्लेखना और समाधिमरणपूर्वक निर्वाण प्राप्ति—प्रस्तुत सूत्र में कालास्यवेषीपुत्र की तरह कालोदायी अनगार के भी अन्तिम संल्लेखनासाधना आदि के द्वारा सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होने का निरूपण किया गया है।
॥ सप्तम शतक : दशम उद्देशक समाप्त॥
॥ सप्तम शतक सम्पूर्ण॥
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक ३२७