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सप्तम शतक : उद्देशक-१०
२०१ अशुभफलविपाक से युक्त होते हैं।
२७. अस्थि णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कल्लाणफलविवागसंजुत्ता कजंति ? हंता, कजंति। [१७ प्र.] भगवन् ! क्या जीवों के कल्याण (शुभ) कर्म कल्याणफलविपाक सहित होते हैं ? [१७ उ.] हाँ, कालोदायी ! होते हैं। १८. कहं णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कजंति ?
कालोदाई ! से जहानामए केई पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं ओसहसम्मिस्सं भोयणं भुंजेजा, तस्स णं भोयणस्स आवाते णो भद्दए भवति, तओ पच्छा परिणममाणे परिणममाणे सुरूवत्ताए सुवण्णत्ताए जाव सुहत्ताए, नो दुक्खत्ताए भुजो-भुजो परिणमति। एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणातिवातवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे तस्स णं आवाए नो भद्दए भवइ, ततो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे सुरूवत्ताए जाव सुहत्ताए, नो दुक्खत्ताए भुजो भुजो परिणमइ; एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कजंति।
[१८ प्र.] भगवन् ! जीवों के कल्याणकर्म यावत् (कल्याणफलविपाक से संयुक्त) कैसे होते हैं ?
[१८ उ.] कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष मनोज्ञ (सुन्दर) स्थाली (हांडी, तपेली या देगची) में पकाने से शुद्ध पका हुआ और अठारह प्रकार के दाल, शाक आदि व्यंजनों से युक्त औषधमिश्रित भोजन करता है, तो वह भोजन ऊपर-ऊपर से प्रारम्भ में अच्छा न लगे, परन्त बाद में परिणत होता-होता जब वह सरूपत्वरूप में. सुवर्णरूप में यावत् सुख (या शुभ) रूप में बार-बार परिणत होता है, तब वह दुःखरूप में परिणत नहीं होता, इसी प्रकार हे कालोदायी ! जीवों के लिए प्राणातिपातविरमण यावत् परिग्रह-विरमण, क्रोधविवेक (क्रोधत्याग) यावत् मिथ्यादर्शनशल्य-विवेक प्रारम्भ में अच्छा नहीं लगता, किन्तु उसके पश्चात् उसका परिणमन होते-होते सुरूपत्वरूप में, सुवर्णरूप में उसका परिणाम यावत् सुखरूप होता है, दुःखरूप नहीं होता। इसी प्रकार हे कालोदायी ! जीवों के कल्याण (पुण्य) कर्म यावत् (कल्याणफलविपाक संयुक्त) होते हैं।
विवेचन—जीवों के पापकर्म और कल्याणकर्म क्रमशः पाप-कल्याणफलविपाक-संयुक्त होने का सदृष्टान्त निरूपण—प्रस्तुत छह सूत्रों में कालोदायी अनगार के पापकर्म और कल्याणकर्म के फल से सम्बन्धित चार प्रश्नों का भगवान् द्वारा दिया गया दृष्टान्तपूर्वक समाधान प्रस्तुत किया गया है।
निष्कर्ष जिस प्रकार सर्वथा सुसंस्कृत एवं शुद्ध रीति से पकाया हुआ विषमिश्रित भोजन खाते समय बड़ा रुचिकर लगता है, किन्तु जब उसका परिणमन होता है, तब वह अत्यन्त अप्रीतिकर, दुःखद और प्राणविनाशकारक होता है। इसी प्रकार प्राणातिपात आदि पापकर्म करते समय जीव को अच्छे लगते हैं, किन्तु उनका फल भोगते समय वे बड़े दुःखदायी होते हैं । औषधयुक्त भोजन करना कष्टकर लगता है, उस समय उसका स्वाद अच्छा नहीं लगता, किन्तु उसके परिणाम हितकर, सुखकर और आरोग्यकर होता है। इसी प्रकार