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________________ २०० व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र महावीरे अन्नया कयाइ जाव समोसढे, परिसा जाव पडिगता। [१४] उस काल और उस समय में राजगृह नामक नगर था। (नगर के बाहर) गुणशीलक नामक चैत्य था। किसी समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पुन: वहाँ पधारे यावत् उनका समवसरण लगा। यावत् परिषद् धर्मोपदेश सुन कर लौट गई। १५. तए णं से कालोदाई अणगारे अन्नया कयाई जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासि-अस्थि णं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कति ? हंता, अत्थि। [१५ प्र.] तदनन्तर अन्य किसी समय कालोदायी अनगार, जहाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ उनके पास आये और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा भगवन् ! क्या जीवों को पापफलविपाक से संयुक्त पाप-कर्म लगते हैं ? [१५ उ.] हाँ, (कालोदायी! ) लगते हैं। १६. कहं णं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कजंति ? कालोदाई ! से जहानामए केई पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं विससंमिस्सं भोयणं भुंजेज्जा, तस्स णं भोयणस्स आवाते भद्दए भवति, ततो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए दुग्गंधत्ताए जहा महस्सवए (स०६ उ०३ सु०२[१]) जाव भुज्जो भुज्जो परिणमति, एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणतिवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, तस्स णं आवाते भद्दए भवइ, ततो पच्छा परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए जाव भुजो भुजो परिणमति, एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवाग० जाव कजंति। [१६ प्र.] भगवन् ! जीवों को पापफलविपाकसंयुक्त पापकर्म कैसे लगते हैं ? [१६ उ.] कालोदायी ! जैसे कोई पुरुष सुन्दर स्थाली (हांडी, तपेली या देगची) में पकाने से शुद्ध पका हुआ और अठारह प्रकार के दाल, शाक आदि व्यंजनों से युक्त विषमिश्रित भोजन करता है, तो वह भोजन (ऊपर-ऊपर से या प्रारम्भ) में अच्छा लगता है, किन्तु उसके पश्चात् वह भोजन परिणमन होता-होता खराब रूप में, दुर्गन्धरूप में यावत् छठे शतक के महाश्रव नामक तृतीय उद्देशक (सू. २-१) में कहे अनुसार यावत् बार-बार अशुभ परिणाम प्राप्त करता है। हे कालोदायी ! इसी प्रकार जीवों को प्राणातिपात से लेकर यावत् मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पापस्थान का सेवन ऊपर-ऊपर से प्रारम्भ में तो अच्छा लगता है, किन्तु बाद में जब उनके द्वारा बांधे हुए पापकर्म उदय में आते हैं, तब वे अशुभरूप में परिणत होते-होते दुरूपपने में, दुर्गन्धरूप में यावत् बार-बार अशुभ परिणाम पाते हैं। हे कालोदायी ! इस प्रकार से जीवों के पापकर्म
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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