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________________ छठा उद्देशक-प्रासुक (सूत्र १-२९) ३१३-३२७ तथारूप श्रमण, माहन या असंयत आदि को प्रासुक-अप्रासुक, एषणीय-अनेषणीय आहार देने का श्रमणोपासक को फल ३१३, 'तथारूप' का आशय ३१४, मोक्षार्थ दान ही यहाँ विचारणीय ३१४, 'प्रासुकअप्रासुक', 'एषणीय-अनेषणीय' की व्याख्या ३१४, 'बहुत निर्जरा, अल्पतर पाप' का आशय ३१४, गृहस्थ द्वारा स्वयं या स्थविर के निमित्त कहकर दिये गये पिण्ड, पात्र आदि की उपभोग-मर्यादा-प्ररूपणा ३१५, परिष्ठापनविधि ३१६, स्थण्डिल-प्रतिलेखन-विवेक ३१६, विशिष्ट शब्दों की व्याख्या ३१७, अकृत्यसेवी, किन्तु आराधनातत्पर निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी की आराधकता की विभिन्न पहलुओं से संयुक्तिक प्ररूपणा ३१७, दृष्टान्तों द्वारा आराधकता की पुष्टि ३२१, आराधक-विराधक की व्याख्या ३२२, जलते हुए दीपक और घर में जलने वाली वस्तु का निरूपण ३२१, आगार के विशेषार्थ ३२२, एक जीव या बहुत जीवों की परकीय (एक या बहुत-से शरीरों की अपेक्षा होने वाली) क्रियाओं का निरूपण ३२३, अन्य जीव के औदारिकादि शरीर की अपेक्षा होने वाली क्रिया का आशय ३२६, किस शरीर की अपेक्षा कितने आलापक ? ३२७ । सप्तम उद्देशक-'अदत्त' (सूत्र १-२५) ३२८-३३५ ___ अन्यतीर्थिकों के साथ अदत्तादान को लेकर स्थविरों के वाद-विवाद का वर्णन ३२८, अन्यतीर्थिकों की भ्रान्ति ३३१, स्थविरों पर अन्यतीर्थिंकों द्वारा पुनः आक्षेप और स्थविरों द्वारा प्रतिवाद ३३२, अन्यतीर्थिकों की भ्रान्ति ३३४, गतिप्रवाद और उसके पांच भेदों का निरूपण ३३४, गतिप्रपात के पांच भेदों का स्वरूप ३३५ । अष्टम उद्देशक-'प्रत्यनीक' (सूत्र १-४७) ३३६-३५८ गुरु-गति-समूह-अनुकम्पा-श्रुत-भाव-प्रत्यनीक-भेद-प्ररूपणा ३३६, प्रत्यनीक ३३७, गुरु-प्रत्यनीक का स्वरूप ३३७, गति-प्रत्यनीक का स्वरूप ३३७, समूह-प्रत्यनीक का स्वरूप ३३७, अनुकम्प्य-प्रत्यनीक का स्वरूप ३३८, श्रुत-प्रत्यनीक का स्वरूप ३३८, भाव-प्रत्यनीक का स्वरूप ३३८, निर्ग्रन्थ के लिए आचरणीय . पंचविध व्यवहार, उनकी मर्यादा और व्यवहारानुसार प्रवृत्ति का फल ३३८, व्यवहार का विशेषार्थ ३३९, आगम आदि पंचविध व्यवहार का स्वरूप ३३९, पूर्व-पूर्व व्यवहार के अभाव में उत्तरोत्तर व्यवहार आचरणीय ३४०, अन्त में फलश्रुति के साथ स्पष्ट निर्देश ३४०, विविध पहलुओं से ऐर्यापथिक और साम्परायिक कर्मबन्ध से सम्बन्धित प्ररूपणा ३४०, बन्धः स्वरूप एवं विवक्षित दो प्रकार ३४४, ऐर्यापथिक कर्मबंध : स्वामी, कर्ता बन्धकाल, बन्धविकल्प, तथा बन्धांश ३४६, त्रैकालिक ऐापथिक कर्मबन्ध-विचार ३४६, ऐर्यापथिक कर्मबन्धविकल्प चतुष्टय ३४८, ऐर्यापथिक कर्म बन्धांश सम्बन्धी चार विकल्प ३४८, साम्परायिक कर्मबंध : स्वामी, कर्ता, बन्धकाल, बन्धविकल्प तथा बन्धांश ३४८, साम्परायिक कर्मबन्ध-सम्बन्धी त्रैकालिक विचार ३४९, साम्परायिक कर्मबन्धक के विषय में सादि-सान्त आदि ४ विकल्प ३४९, बावीस परीषहों का अष्टविध कर्मों में समवतार तथा सप्तविधबन्धकादि के परीषहों की प्ररूपणा ३४९, परिसहः स्वरूप और प्रकार ३५२, सप्तविध आदि बन्धक के साथ परिसहों का साहचार्य ३५२, उदय, अस्त और मध्याह्न के समय में सूर्यों की दूरी और निकटता के प्रतिभास आदि की प्ररूपणा ३५४, सूर्य के दूर और निकट दिखाई देने के कारण का स्पष्टीकरण ३५८, सूर्य की गतिः अतीत, अनागत या वर्तमान क्षेत्र में ? ३५८, सूर्य किस क्षेत्र को प्रकाशित, उद्योतित और तप्त करता है ?३५८, सूर्य की ऊपर-नीचे और तिरछे प्रकाशित आदि करने की सीमा ३५८, मानुषोत्तरपर्वत के [२०]
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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