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सप्तम शतक : उद्देशक-१० जैसे—धर्मास्तिकाय यावत् आकाशास्तिकाय । यावत् 'एक पुदगलास्तिकाय को ही श्रमण ज्ञातपुत्र रूपीकाय
और अजीवकाय कहते हैं; यहाँ तक (पहले की हुई) अपनी सारी चर्चा उन्होंने गौतम से कही। फिर पूछा— हे भदन्त गौतम ! यह बात ऐसे कैसे है ?
[२] तए णं से भगवं गोतमे ते अन्नउत्थिए एवं वयासी—"नो खलु वयं देवाणुप्पिया ! अस्थिभावं'नत्थि'त्ति वदामो, नत्थिभावं अत्थि'त्ति वदामो।अम्हे णं देवाणुप्पिया ! सव्वं अत्थिभावं 'अत्थी' ति वदामो, सव्वं नत्थिभावं 'नत्थी' ति वदामो। तं चेदसा खलु तुब्भे देवाणुप्पिया ! एतमझें सयमेव पच्चुविक्खह" त्ति कटु ते अन्नउत्थिए एवं वदति। एवं वदित्ता जेणेव गुणसिलए चेतिए जेणेव समणे० एवं जहा नियंठुद्देसए (श० २ उ० ५ सू. २५ [१]) जाव भत्त-पाणं पडिदंसेति, भत्त-पाणं पडिदंसेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने जाव पज्जुवासति।
[६-२ उ.] इस पर भगवान् गौतम ने उन अन्यतीर्थिकों से इस प्रकार कहा—'हे देवानुप्रियो ! हम अस्तिभाव (विद्यमान) को नास्ति (नहीं है), ऐसा नहीं कहते, इसी प्रकार 'नास्तिभाव' (अविद्यमान) को अस्ति (है) ऐसा नहीं कहते। हे देवानुप्रियो ! हम सभी अस्तिभावों को अस्ति (है), ऐसा कहते हैं और समस्त नास्तिभावों को नास्ति (नहीं है), ऐसा कहते हैं। अत: हे देवानुप्रियो ! आप स्वयं अपने ज्ञान (अथवा मन) से इस बात (अर्थ) पर अनुप्रेक्षण (चिन्तन) करिये।' इस प्रकार कह कर श्री गौतमस्वामी ने उन अन्यतीथिको से यों कहा- जैसा भगवान् बतलाते हैं, वैसा ही है।' इस प्रकार कह कर श्री गौतमस्वामी गुणशीलक चैत्य में जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास आए और द्वितीय शतक के निर्ग्रन्थ उद्देशक (सू. २५-१) में बताये अनुसार यावत् आहार-पानी (भक्त-पान) भगवान को दिखलाया। भक्तपान दिखला कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके उनसे न बहुत दूर और न बहुत निकट रह कर यावत् उपासना करने लगे। ___७. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे महाकहापडिवन्ने यावि होत्था, कालोदाई य तं देसं हव्वमागए।
[७] उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर महाकथा-प्रतिपन्न (बहुत-से जन-समूह को धर्मोपदेश देने में प्रवृत्त) थे। उसी समय कालोदायी उस स्थल (प्रदेश) में आ पहुँचा।
८. 'कालोदाई' ति समणे भगवं महावीरे कालोदाई एवं वदासी—"से नूणं ते कालोदाई ! अनया कयाई एगयओ सहियाणं समुवागताणं सन्निविट्ठाणं तहेव (सू० ३) जाव से कहमेतं मन्ने एवं ? से नूणं कालोदाई ! अत्थे समठे ? हंता, अत्थि। तं सच्चे णं एसमठे कालोदाई !, अहं पंच अत्थिकाए पण्णवेमि, तं जहा—धम्मत्थिकायं जाव पोग्गलत्थिकायं। तत्थ णं अहं चत्तारि अस्थिकाए अजीवकाए पण्णवेमि तहेव जाव एगं च णं अहं पोग्गलत्थिकायं रूविकायं पण्णवेमि"। .
[८] 'हे कालोदायी!' इस प्रकार सम्बोधन करके श्रमण भगवान् महवीर ने कालोदायी से इस प्रकार पूछा—'हे कालोदायी ! क्या वास्तव में, किसी समय एक जगह सभी साथ आए हुए और एकत्र सुखपूर्वक बैठे