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________________ १८८ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र देवत्ताए उववत्तारो भवंति। से कहमेतं भंते ! एवं ? गोयमा ! जं णं से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव उववत्तारो भवंति, जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि [२०-१ प्र.] भगवन् ! बहुत-से (धर्मोपदेशक या पौराणिक) लोग परस्पर ऐसा कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि-अनेक प्रकार के छोटे-बड़े (उच्चावच) संग्रामों में से किसी भी संग्राम में सामना करते हुए (अभिमुख रहकर लड़ते हुए) आहत हुए एवं घायल हुए बहुत-से मनुष्य मृत्यु के समय मर कर किसी भी देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। भगवन् ! ऐसा कैसे हो सकता है ? [२०-१ उ.] गौतम ! बहुत से मनुष्य, जो इस प्रकार कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि संग्राम में मारे गए मनुष्य देवलोकों में उत्पन्न होते हैं, ऐसा कहने वाले मिथ्या कहते हैं । हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ - _ "[२] एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वेसाली नाम नगरी होत्था। वण्णओ। तत्थ णं वेसालीए णगरीए वरुणे नाम णागनत्तुए परिवसति अड्डे जाव अपरिभूते समणोवासए अभिगतजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे छठें-छद्रेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विरहति।" [२०-२ प्र.] गौतम ! उस काल और उस समय में वैशाली नाम की नगरी थी। उसका वर्णन औपपातिकसूत्रोक्त (चम्पानगरी की तरह) जान लेना चाहिए। उस वैशाली नगरी में वरुण' नामक नागनप्तृक (नाग नामक गृहस्थ का नाती-दौहित्र या पौत्र) रहता था। वह धनाढ्य यावत् अपरिभूत (किसी के आगे न दबने वाला-दबंग) व्यक्ति था। वह श्रमणोपासक था और जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता था, यावत् आहारादि द्वारा श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रतिलाभित करता हुआ तथा निरन्तर छठ-छठ की (बेले की) तपस्या द्वारा अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करता था। [३] तए णं से वरुणे णागनत्तुए अन्नया कयाई रायाभिओगेणं गणाभिओगेणं बलाभिओगेणं रहमुसले संगामे आणत्ते समाणे छट्ठभत्तिए, अट्ठमभत्तं अणुवट्टेति, अट्ठमभत्तं अणुवदेत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं वदासी—खिप्पामेव भो ! देवाणुप्पिया !चातुग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उवट्ठावेह हय-गय-रहपवर जाव सन्नहेत्ता मम एतमाणत्तियं पच्चप्पिणह। [२०-३] एक बार राजा के अभियोग (आदेश) से, गण के अभियोग से तथा बल (बलवान्-जवर्दस्त व्यक्ति) के अभियोग से वरुण नागनप्तृक (नत्तुआ) को रथमूसलसंग्राम में जाने की आज्ञा दी गई। तब उसने षष्ठभक्त (बेले के तप) को बढ़ाकर अष्टभक्त (तेले का) तप कर लिया। तेले की तपस्या करके उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों (सेवकों) को बुलाया और बुलाकर इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रियो ! चार घंटों वाला अश्वरथ, सामग्रीयुक्त तैयार करके शीघ्र उपस्थित करो। साथ ही अश्व, हाथी, रथ और प्रवर योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना को सुसज्जित करो, यावत् यह सब सुसज्जित करके मेरी आज्ञा मुझे वापस सौंपो।" "[४] तए णं कोडंवियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सच्छत्तं सज्झयं जाव उवट्ठावेंति,
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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