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सप्तम शतक : उद्देशक- ६
[ ३६ उ.] गौतम ! वे प्रायः नरक और तिर्यञ्चयोनि में उत्पन्न होंगे। ३७. ते णं भंते ! ढंका कंका विलका मदुगा सिही णिस्सीला ? तहेव जाव ओसन्नं नरग-तिरिक्खजोणिएसु उववज्जिहिंति । सेवं भंते! सेवं भंते ! ति० ।
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॥ सत्तम सए : छट्टो उद्देसओ समत्तो ॥
[३७ प्र.] भगवन् ! (उस काल और उस समय के) नि:शील आदि पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त ढंक (एक प्रकार के कौए), कंक, बिलक, मद्दुक (जलकाक - जलकौए), शिखी (मोर) (आदि पक्षी मर कर कहाँ उत्पन्न होंगे ?)
[३७ उ.] गौतम ! (वे उस काल के पूर्वोक्त पक्षीगण मरकर ) प्राय: नरक एवं तिर्यञ्च योनियों में उत्पन्न होंगे।
हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर श्री गौतमस्वामी यावत् विचरण करने लगे।
विवेचन – छठे आरे के मनुष्यों के आहार तथा मनुष्य-पशु-पक्षियों के आचार आदि के अनुसार मरणोपरान्त उत्पत्ति का वर्णन — प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. ३४ से ३७ तक) में से प्रथम में छठे आरे के मनुष्यो की आहारपद्धति का तथा आगे के तीन सूत्रों में क्रमशः उस काल के नि:शीलादि मानवों, पशुओं एवं पक्षियों की मरणोपरान्त गति-योनि का वर्णन किया गया है।
निष्कर्ष - उस समय के मनुष्यों का आहार प्रायः मांस, मत्स्य और मृतक का होगा। मांसाहारी होने से वे शील, गुण, मर्यादा, त्याग - प्रत्याख्यान एवं व्रत - नियम आदि धर्म-पुण्य से नितान्त विमुख होंगे। मत्स्य आदि को जमीन में गाड़ कर, फिर उन्हें सूर्य के ताप और चन्द्रमा की शीतलता से सिकने देना ही उनकी आहार पकाने की पद्धति होगी। इस प्रकार की पद्धति से २१ हजार वर्ष तक जीवनयापन करने के पश्चात् वे मानव अथवा वे पशु-पक्षी आदि मर कर नरक या तिर्यञ्चगति में उत्पन्न होंगे।'
कठिन शब्दों के विशेषार्थ — अक्खसोतप्पमाणमेत्तं रथ की धुरी टिकने के छिद्र जितने प्रमाणभर । वोज्झिहिंति — बहेंगे । निद्धाहिंति — निकलेंगे । णिम्मेरा-कुलादि की मर्यादा से हीन, नंगधड़ंग रहने वाले । ॥ सप्तम शतक : छठा उद्देशक समाप्त ॥
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ - टिप्पणयुक्त) भाग-१, पृ. २९५-२९६ २. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३०९