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________________ १५८ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र दुःषमदुःषमकाल में भारतवर्ष, भारतभूमि एवं भारत के मनुष्यों के आचार (आकार) और भाव का स्वरूप-निरूपण ३१. जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए दुस्समदुस्समाए समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे भविस्सति? गोयमा ! काले भविस्सति हाहाभूते भंभाभूए कोलाहलभूते, समयाणुभावेणं य णं खरफरुसधूलिमइला दुव्विसहा वाउला भयंकरा वाता संवट्टगा य वाइंति, इह अभिक्खं धूमाहिति य दिसा समंता रयस्सला रेणुकलुसतमपडलनिरालोगा, समयलुक्खयाए य णं अहियं चंदा सीतं मोच्छंति, अहियं सूरिया तवइस्संति, अदुत्तरं च णं अभिक्खणं बहवे अरसमेहा विरसमेहा खारमेहा खत्तमेहा (खट्टमेहा) अग्ग्मेिहा विजुमेहा विसमेहा असणिमेहा अपिबणिजोदगा वाहिरोगवेदणोदीरणापरिणामसलिला अमणुण्णपाणियगा चंडानियपहलतिक्खधारानिवायपउरं वासं वासिहिंति। जेणं भारहे वासे गामागर-नगर-खेड-कब्बड-मंडब-दोणमुह-पट्टणाऽऽसमगतं जणवयं चउप्पयगवेलय खहयरे य पक्खिसंघे, गामाऽरण्णपयारनिरए तसे य पाणे बहुप्पगारे, रुक्ख-गुच्छ-गुम्म-लय-वल्लितण-पव्वग-हरितोसहि-पवालंकुरमादीय य तणवणस्सतिकाइए विद्धंसेहिंति। पव्वय-गिरिडोंगरुत्थल-भट्टिमादीए य वेयड्ढगिरिवजे विरावेहिंति। सलिलबिल-गड्ड-दुग्ग-विसमनिण्णुन्नताई गंगा-सिंधु-वजाइं समीकरहिंति। [३१ प्र.] भगवन् ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भारतवर्ष में इस अवसर्पिणी काल का दुःखमदु:षम नामक छठा आरा जब अत्यन्त उत्कट अवस्था को प्राप्त होगा, तब भारतवर्ष का आकारभाव-प्रत्यवतार (आकार या आचार और भावों का आविर्भाव) कैसा होगा? [३१ उ.] गौतम ! वह काल हाहाभूत (मनुष्यों के हाहाकार से युक्त), भंभाभूत (दुःखात पशुओं के भां-भां शब्दरूप आर्तनाद से युक्त) तथा कोलाहलभूत (दुःखपीड़ित पक्षियों के कोलाहल से युक्त) होगा काल के प्रभाव से अत्यन्त कठोर, धूल से मलिन (धूमिल), असह्य, व्याकुल (जीवों को व्याकुल कर देने वाली), भयंकर वात (हवाएँ) एवं संवर्तक वात (हवाएँ) चलेंगी। इस काल में यहाँ बारबार चारों ओर से धूल उड़ने से दिशाएँ रज (धूल) से मलिन और रेत से कलुषित, अन्धकारपटल से युक्त एवं आलोक से रहित होंगी। समय (काल) की रूक्षता के कारण चन्द्रमा अत्यन्त शीतलता (ठंडक) फैंकेंगे; सूर्य अत्यन्त तपेंगे। इसके अनन्तर बारम्बार बहुत से खराब रस वाले मेघ, विपरीत रसवाले मेघ, खारे जल वाले मेघ, खत्तमेघ (खाद के समान पानी वाले मेघ), (अथवा खट्टमेघ खट्टे पानी वाले बादल), अग्निमेघ (अग्नि के समान गर्मजल वाले मेघ), विद्युतमेघ (बिजली सहित मेघ), विषमेघ (जहरीले पानी वाले मेघ), अशनिमेघ (ओले-गड़े बरसाने वाले या वज्र के समान पर्वतादि को चूर-चूर कर देने वाले मेघ.) अपेय (न पीने योग्य) जल से पूर्ण मेघ (अथवा तृषा शान्त न कर सकने वाले पानी से युक्त मेघ), व्याधि, रोग और वेदना को उत्पन्न करने (उभाड़ने) वाले जल से युक्त तथा अमनोज्ञ जल वाले मेघ, प्रचण्ड वायु के थपेड़ों (आघात) से आहत
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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