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________________ सप्तम शतक : उद्देशक-३ १४५ समय दूसरा है और निर्जरा का समय दूसरा है। इसी कारण हे गौतम ! मैं कहता हूँ कि......... यावत् निर्जरा का जो समय है, वह वेदना का समय नहीं है। २१.[१] नेरतियाणं भंते ! जे वेदणासमए से निजरासमए ? जे निजरासमए से वेदणासमए ? गोयमा ! णो इणठे समठे। [२१-१ प्र.] भगवन् ! क्या नैरयिक जीवों का जो वेदना का समय है, वह निर्जरा का समय है और जो निर्जरा का समय है, वह वेदना का समय है ? [२१-१ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [२] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ ‘नेरइयाणं जे वेदणासमए न से निजरासमए' जे निजरासमए न से वेदणासमए ?' ___ गोयमा ! नेरइया णं जं समयं वेदेति णो तं समयं निजरेंति, जं समयं निजरेंति, नो तं समयं वेदेति; अन्नम्मि समए वेदेति, अन्नम्मि समए निजरेंति; अन्ने से वेदणासमए, अन्ने से निज्जरासमए। से तेणढेणं जाव न से वेदणासमए। [२१-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि नैरयिकों के जो वेदना का समय है, वह निर्जरा का समय नहीं है और जो निर्जरा का समय है, वह वेदना का समय नहीं है ? [१२-२ उ.] गौतम ! नैरयिक जीव जिस समय में वेदन करते हैं, उस समय में निर्जरा नहीं करते और जिस समय में निर्जरा करते हैं, उस समय में वेदन नहीं करते। अन्य समय में वे वेदन करते हैं और अन्य समय में निर्जरा करते हैं। उनके वेदना का समय दूसरा है और निर्जरा का समय दूसरा है। इस कारण से मैं ऐसा कहता हूँ कि यावत् जो निर्जरा का समय है, वह वेदना का समय नहीं है। २२. एवं जाव वेमाणियाणं। [२२] इसी प्रकार वैमानिकों पर्यन्त ही चौबीस ही दण्डकों में कहना चाहिए। विवेचन–चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में वेदना और निर्जरा के तथा इन दोनों के समय के पृथक्त्व का निरूपण—प्रस्तुत १३ सूत्रों (सू. १० से २२ तक) में विभिन्न पहलुओं से सामान्य जीव में, चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में वेदना और निर्जरा के पृथक्त्व का तथा इन दोनों के समय के पृथक्त्व का निरूपण किया गया है। वेदना और निर्जरा की व्याख्या के अनुसार दोनों के पृथक्त्व की सिद्धि-उदयप्राप्त कर्म को भोगना 'वेदना' कहलाती है और जो कर्म भोग कर क्षय कर दिया गया है, उसे निर्जरा कहते हैं । वेदना कर्म की होती है। इसी कारण वेदना को (उदयप्राप्त) कर्म कहा गया है और निर्जरा को नोकर्म (कर्माभाव)। तात्पर्य यह है कि कार्मण वर्गणा के पुद्गल सदैव विद्यमान रहते हैं, किन्तु वे सदा कर्म नहीं कहलाते । कषाय और योग के निमित्त से जीव के साथ बद्ध होने पर ही उन्हें 'कर्म' संज्ञा प्राप्त होती है और वेदन के अन्तिम १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३०२
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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