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सप्तम शतक : उद्देशक-३
१३९ इससे वे आहार करते और उसे परिणमाते हैं।
विवेचन-वनस्पतिकायिक मूलजीवादि से स्पृष्ट मूलादि के आहार के सम्बंध में सयुक्तिक समाधान—प्रस्तुत सूत्रद्वय (सू. ३ और ४) में वनस्पतिकाय के मूल आदि अपने-अपने जीव के साथ स्पृष्टव्याप्त होते हुए कैसे आहार करते हैं ? इसका युक्तिसंगत समाधान प्रस्तुत किया गया है।
वृक्षादिरूप वनस्पति के दस प्रकार—मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज।
मूलादि जीवों से व्याप्त मूलादि द्वारा आहारग्रहण-मूलादि अपने-अपने जीवों से व्याप्त होते हुए भी परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध रहते हैं—जैसे मूल पृथ्वी से, कन्द मूल से, स्कन्ध कन्द से, त्वचा स्कन्ध से, शाखा त्वचा से, प्रवाल शाखा से, पत्र प्रवाल से, पुष्प पत्र से, फल पुष्प से और बीज फल से सम्बद्ध-परिबद्ध होता है, इस कारण परम्परा से मूलादि सब एक दूसरे से जुड़े हुए होने से अपना अपना आहार ले लेते हैं और उसे परिणमाते हैं। आलू, मूला आदि वनस्पतियों में अनन्तजीवत्व की प्ररूपणा
. ५.अह भंते ! आलुए मूलए सिंगबेरे हिरिली सिरिली सिस्सिरिली किट्ठिया छिरिया छीर विरालिया कण्हकंदे वजकंदे सूरणकंदे खिलूडे भद्दमुत्था पिंडहलिद्दा लोहिणी हथिहमगा(थिरुगा) मुग्गकण्णी अस्सकण्णी सीहकण्णी सीहंढी मुसुंढी, जे यावन्ने तहप्पगारा सव्वे ते अंणतजीवा विविहसत्ता ?
हंता, गोयमा ! आलुए मूलए जाव अणंतजीवा विविहसत्ता।
[५ प्र.] अब प्रश्न यह है भगवन् ! आलू मूला, शृंगबेर (अदरख), हिरिली, सिरिली, सिरिसिरिली, किट्टिका, छिरिया, छीरविदारिका, वज्रकन्द, सूरणकन्द, खिलूड़ा, (आर्द्र-) भद्रमोथा, पिंडहरिद्रा (हल्दी की गाँठ), रोहिणी, हुथीहू, थिरूगा, मुद्गकर्णी, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सिहण्डी, मुसुण्ढी, ये और इसी प्रकार की जितनी भी दूसरी वनस्पतियाँ है, क्या वे सब अनन्त जीववाली और विविध (पृथक्-पृथक्) जीववाली हैं ?
[५ उ.] हाँ, गौतम ! आलू, मूला, यावत् मुसुण्ढी; ये और इसी प्रकार की जितनी भी दूसरी वनस्पतियाँ हैं, वे सब अनन्त जीव वाली और विविध (भिन्न-भिन्न) जीव वाली हैं।
विवेचन—आलू, मूला आदि वनस्पतियों में अनन्त जीवत्व और विभिन्न जीवत्व की प्ररूपणाप्रस्तुत पंचम सूत्र में आलू, मूला आदि तथा इसी प्रकार की भूमिगत मूलवाली अनन्तकायिक वनस्पतियों में अनन्त जीवत्व तथा पृथक् जीवत्व की प्ररूपणा की गई है। ___'अनन्तजीवा विविहसत्ता' की व्याख्या-आलू आदि अनन्तकाय के प्रकार लोकरूढ़िगम्य हैं, (भिन्न-भिन्न) देशों में ये उन-उन नामों से प्रसिद्ध हैं, इनमें अनन्त जीव हैं, तथा विविध तत्त्व (पृथक् चेतनावाले) हैं, अथवा वर्णादि के भेद से ये विविध प्रकार के हैं, अथवा एक स्वरूप या एककायिक होते हुए
१. भगवती. अ. वृत्ति, पत्रांक ३००