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सप्तम शतक : उद्देशक-२
१३३ २६. सेसा अपच्चक्खाणी जाव वेमाणिया। [२६] वैमानिकपर्यन्त शेष सभी जीव अप्रत्याख्यानी हैं। २७. एतेसि णं भंते ! जीवाणं सव्वुत्तरगुणपच्चक्खाणी०, अप्पाबहुगाणि। तिण्णि वि जहा पढमे दंडए (सु. १४-१६) जाव मणूसाणं।
[२७ प्र.] भगवन् ! इन सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी, देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानी एवं अप्रत्याख्यानी जीवों में से कौन किनसे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? ।
[२७ उ.] गौतम ! इन तीनों का अल्पबहुत्व प्रथम दण्डक (सू. १४-१६) में कहे अनुसार यावत् मनुष्यों तक जान लेना चाहिए।
विवेचन–सर्वतः और देशतः मूलोत्तरगुणप्रत्याख्यानी तथा अप्रत्याख्यानी जीवों का तथा चौबीस दण्डकों में अस्तित्व एवं अल्पबहुत्व—प्रस्तुत ११ सूत्रों (सू. १७ से २७ तक) में सर्वतः देशतः मूलोत्तरगुणप्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानी समुच्चय जीवों तथा चौबीस दण्डकवर्ती जीवों के अस्तित्व एवं अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है।
निष्कर्ष सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान केवल मनुष्य में ही होता है, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच दोनों ही हो सकते हैं तथा शेष सभी जीव अप्रत्याख्यानी होते हैं। मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय कदाचित् अप्रत्याख्यानी भी होते हैं। सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यानी तथा देशोत्तर-गुणप्रत्याख्यानी मनुष्य और तिर्यंच पंचेन्द्रिय हो सकते हैं। शेष सभी जीव अप्रत्याख्यानी हैं। अतः सबसे थोड़े सर्वमूलप्रत्याख्यानी हैं, उनसे अधिक देशमूलगुणप्रत्याख्यानी जीव हैं और सबसे अधिक अप्रत्याख्यानी हैं। जीवों और चौबीस दण्डकों में संयत आदि तथा प्रत्याख्यानी आदि के अस्तित्व एवं अल्पबहुत्व की प्ररूपणा
२८. जीवा णं भंते ! किं संजता ? असंजता ? संजतासंजता?
गोयमा ! जीवा संजया वि०,तिण्णि वि, एवं जहेव पण्णवणाए तहेव भाणियव्वं जाव वेमाणिया। अप्पाबहुगं तहेव (सु. १४-१६) तिण्ह वि भाणियव्वं।
[२८ प्र.] भगवन् ! क्या जीव संयत हैं, असंयत हैं, अथवा संयतासंयत हैं ?
[२८ उ.] गौतम ! जीव संयत भी हैं, असंयत भी हैं और संयतासंयत भी हैं। इस तरह प्रज्ञापनासूत्र ३२वें पद में कहे अनुसार यावत् वैमानिकपर्यन्त कहना चाहिए और अल्पबहुत्व भी तीनों का पूर्ववत् (सू. १४ से १६ तक में उक्त) कहना चाहिए।
१. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त) भा. १, पृ. २८१ से २८३ तक