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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
आदि तप करना । ( ४ ) नियन्त्रित — जिस दिन जिस प्रत्याख्यान को करने का निश्चय किया है, उस दिन रोगादि बाधाओं के आने पर भी उसे नहीं छोड़ना, नियमपूर्वक करना। (५) साकार (सागार) - जिस प्रत्याख्यान में कुछ आगार (छूट या अपवाद) रखा जाय। उन आगारों में से किस आगार के उपस्थित होने पर त्यागी हुई वस्तु के त्याग का काल पूरा होने से पहले ही उसे सेवन कर लेने पर भी प्रत्याख्यान - भंग नहीं होता। जैसे- नवकारसी, पौरसी आदि । (६) अनाकार (अनागार ) जिस प्रत्याख्यान में 'महत्तरागार' आदि कोई आगार न हों। 'अनाभोग' और 'सहसाकार' तो उसमें होते ही हैं। (७) परिमाणकृत — दत्ति, कवल (ग्रास), घर भिक्षा या भोज्यद्रव्यों की मर्यादा करना। (८) निरवशेष—अशन, पान, खादिम और स्वादिम, इन चारों प्रकार के आहार का सर्वथा प्रत्याख्यान त्याग करना । ( ९ ) संकेतप्रत्याख्यान — अंगूठा, मुट्ठी, गांठ आदि किसी भी वस्तु के संकेत को लेकर किया जाने वाला प्रत्याख्यान । (१०) अद्धाप्रत्याख्यान - अद्धा अर्थात् कालविशेष को नियत करके जो प्रत्याख्यान किया जाता है। जैसे— पोरिसी, दो पोरिसी, मास, अर्द्धमास आदि। सप्तविध देशोत्तरगुणप्रत्याख्यान का स्वरूप- (१) दिग्व्रत - पूर्वादि छहों दिशाओं की गमनमर्यादा करना, नियमित दिशा से आगे आस्रव सेवन का त्याग करना । (२) उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत-उपभोग्य (एक बार भोगने योग्य - भोजनादि) और परिभोग्य ( बार - बार भोगे जाने योग्य वस्त्रादि) वस्तुओं ( २६ बोलों) की मर्यादा करना । (३) अनर्थदण्डविरमणव्रत - अपध्यान, प्रमाद, हिंसाकारीशस्त्रप्रदान, पापकर्मोंपदेश, आदि निरर्थक-निष्प्रयोजन हिंसादिजनक कार्य अनर्थदण्ड हैं, उनसे निवृत्त होना । ( ४ ) सामायिकव्रत — सावद्य व्यापार ( प्रवृत्ति) एवं आर्त्त - रौद्रध्यान को त्याग कर धर्मध्यान में तथा समभाव में मनोवृति या आत्मा को लगाना। एक सामायिक की मर्यादा एक मुहूर्त की है। सामायिक में बत्तीस दोषों से दूर रहना चाहिए। (५) देशावकाशिकव्रत - दिग्व्रत में जो दिशाओं की मर्यादा का तथा पहले के स्वीकृत सभी व्रतों की मर्यादा का दैनिक संकोच करना, मर्यादा के उपरान्त क्षेत्र में आस्रवसेवन न करना, मर्यादितक्षेत्र में जितने द्रव्यों की मर्यादा की है उसके उपरान्त सेवन न करना। (६) पौषधोपवासव्रत — एक दिन-रात (आठ पहर तक) चतुर्विध आहार, मैथुन, स्नान, शृंगार आदि का तथा समस्त सावद्य व्यापार का त्याग करके धर्मध्यान में लीन रहना; पौषध के अठारह दोषों का त्याग करना । (७) अतिथिसंविभागव्रतउत्कृष्ट अतिथि महाव्रती साधुओं को उनके लिए कल्पनीय अशनादि चतुर्विध आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोंछन, पीठ (चौकी), फलक (पट्टा), शय्या, संस्तारक, औषध, भैषज, ये १४ प्रकार की वस्तुएँ निष्कामबुद्धिपूर्वक आत्मकल्याण की भावना से देना, दान का संयोग न मिलने पर भी भावना रखना तथा मध्यम एवं जघन्य अतिथि को भी देना ।
दिग्व्रत आदि तीन को गुणव्रत और सामायिक आदि ४ व्रतों को शिक्षाव्रत भी कहते हैं।
अपश्चिम- मारणान्तिक-संल्लेखना - जोषणा - आराधनता की व्याख्या - यद्यपि प्राणियों का
१. देखिये इन दस प्रत्याख्यानों के लक्षण को सूचित करने वाली गाथाएँ — भगवती. अ. वृत्ति, पृ. २९६, २९७
२.
(क) उपासकदशांग अ. वृत्ति
(ख) भगवती. ( हिन्दीविवेचन ) भा-३, पृ. १११८ से ११२०