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________________ सप्तम शतक : उद्देशक - २ १२५ कहने वाले जिस पुरुष को इस प्रकार (यह ) अभिसमन्वागत ( ज्ञात- अवगत) नहीं होता कि 'ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं'; उस पुरुष का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान नहीं होता, किन्तु दुष्प्रत्याख्यान होता है। साथ ही, 'मैंने सभी प्राण यावत् सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है' इस प्रकार कहने वाला वह दुष्प्रत्याख्यानी पुरुष सत्यभाषा नहीं बोलता; किन्तु मृषाभाषा बोलता है। इस प्रकार वह मृषावादी सर्व प्राण यावत् समस्त सत्त्वों के प्रति तीन करण, तीन योग से असंयत (संयमरहित), अविरत (हिंसादि से अनिवृत या विरतिरहित), पापकर्म से प्रतिहत (नहीं रुका हुआ) और पापकर्म का अप्रत्याख्यानी (जिसने पापकर्म का प्रत्याख्यान - त्याग नहीं किया है), (कायिकी आदि) क्रियाओं से युक्त (सक्रिय), असंवृत ( संवररहित), एकान्तदण्ड (हिंसा) कारक एवं एकान्तबाल (अज्ञानी) है। 'मैंने सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है, ' यों कहने वाले जिस पुरुष को यह ज्ञात होता है कि 'ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये त्रस हैं और ये स्थावर हैं, ' उस (सर्व प्राण, यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का मैंने त्याग किया है, यों कहने वाले) पुरुष का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है, किन्तु दुष्प्रत्याख्यान नहीं है। 'मैंने सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है, ' इस प्रकार कहता हुआ वह सुप्रत्याख्यानी सत्यभाषी, सर्व प्राण यावत् सत्त्वों के प्रति तीन करण, तीन योग से संयत, विरत है। (अतीतकालीन) पापकर्मों को (पश्चात्ताप - आत्मनिन्दा से) उसने प्रतिहत ( घात) कर (या रोक) दिया है, (अनागत पापों को) प्रत्याख्यान से त्याग दिया है, वह अक्रिय (कर्मबंध की कारणभूत क्रियाओं से रहित) है, संवृत (आस्रवद्वारों को रोकने वाला, संवरयुक्त) है, (एकान्त अदण्डरूप है) और एकान्त पण्डित है। इसलिए, हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि यावत् कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है । विवेचन – सुप्रत्याख्यानी और दुष्प्रत्याख्यानी का स्वरूप — प्रस्तुत सूत्र में सुप्रत्याख्यानी और दुष्प्रत्याख्यानी का रहस्य बताया गया है । सुप्रत्याख्यान और दुष्प्रत्याख्यान का रहस्य – किसी व्यक्ति के केवल मुंह से ऐसा बोलने मात्र से ही प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान नहीं हो जाता कि 'मैंने समस्त प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान (त्याग) कर दिया है;' किन्तु इस प्रकार बोलने के साथ-साथ अगर वह भलीभांति जानता है। कि 'ये जीव हैं ये अजीव हैं, ये त्रस हैं, ये स्थावर हैं' तो उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है और वह सत्यभाषी, संयत, विरत आदि भी होता है, किन्तु अगर उसे जीवाजीवादि के विषय में समीचीन ज्ञान नहीं होता तो केवल प्रत्याख्यान के उच्चारण से वह न तो सुप्रत्याख्यान होता है, न ही सत्यभाषी, संयत विरत आदि । इसीलिए दशवैकालिक में कहा गया है—'पढमं नाणं, तओ दया ।' ज्ञान के अभाव में कृत प्रत्याख्यान का यथावत् परिपालन न होने से वह दुष्प्रत्याख्यानी रहता है, सुप्रत्याख्यानी नहीं होता । ' प्रत्याख्यान के भेद-प्रभेदों का निरूपण १. २. कतिविहे णं भंते ! पच्चक्खाणे पण्णत्ते । गोयमा ! दुविहे पच्चक्खाणे पण्णत्ते, तं जहा – मूलगुणपच्चक्खाणे य उत्तरगुणपच्चक्खाणे य। (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २९५, (ख) देखिये, इसके समर्थन में दशवैकालिक सू., अ. ४, गाथा - १० से १३ तक
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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