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________________ सप्तम शतक : उद्देशक-१ १२३ या मंडल) के पांच दोष कहते हैं। वे इस प्रकार हैं (१) अंगार–सरस स्वादिष्ट आहार में आसक्त एवं मुग्ध होकर आहार की या दाता की प्रशंसा करते हुए खाना। इस प्रकार आहार पर मूर्छा रूप अग्नि से संयम रूप ईंधन कोयले (अंगार) की तरह दूषित हो जाता है। (२) धूम-नीरस या अमनोज्ञ आहार करते हुए आहार या दाता की निन्दा करना। (३)संयोजना–स्वादिष्ट एवं रोचक बनाने के लिए रसलोलुपतावश एक द्रव्य के साथ दूसरे द्रव्यों को मिलाना। (४)अप्रमाण–शास्त्रोक्तप्रमाण से अधिक आहार करना और (५) अकारण—साधु के लिए ६ कारणों से आहार करने और ६ कारणों से छोड़ने का विधान है, किन्तु उक्त कारणों के बिना केवल बलवीर्यवृद्धि के लिए आहार करना। इन ' दोषों में से १७-१८वें सूत्रों में अंगार, धूम और संयोजना दोषों से युक्त और रहित की व्याख्या की गई है। शेष दो १९ और २०वें सूत्रों में प्रमाणातिक्रान्त और संयमयात्रार्थ तथा संयमभारवहनार्थ के रूप में गतार्थ कर दिया है। क्षेत्रातिक्रान्त का भावार्थ यहाँ क्षेत्र का अर्थ सूर्यसम्बन्धी तापक्षेत्र अर्थात् दिन है, इसका अतिक्रमण करना क्षेत्रातिक्रान्त है। कुक्कुटी-अण्डप्रमाण का तात्पर्य आहार का प्रमाण बताने के लिए 'कुक्कुटी-अण्डकप्रमाण' शब्द दिया है। इसके दो अर्थ होते हैं—(१) कुक्कुटी के अंडे के जितने प्रमाण का एक कवल, तथा (२) जीवरूपी पक्षी के लिए आश्रयरूप होने से गंदी अशुचिप्राय काया 'कुकुटी' है, इस कुकुटी के उदरपूरक पर्याप्त आहार को कुकुटी-अण्डकप्रमाण कहते हैं। शस्त्रातीतादि की शब्दशः व्याख्या शस्त्रातीत—अग्नि आदि शस्त्र से उत्तीर्ण। सत्थपरिणामितशस्त्रों से वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श अन्यरूप में परिणत किया हुआ, अर्थात्,-अचित्त किया हुआ। एसियस्सएषणीय-गवेषणा आदि से गवेषित । वेसियस्स–विशेष या विविध प्रकार से गवेषणा, ग्रहणैषणा एवं ग्रासैषणा से विशोधित अथवा वैषित अर्थात् मुनिवेष-मात्र देखने से प्राप्त । सामुदाणियस्स-गृहसमुदायों से उत्पादनादोष से रहित भिक्षाजीविता। नवकोटिविशुद्ध का अर्थ-(१) किसी जीव की हिंसा न करना, (२) न कराना, (३) न ही , अनुमोदन करना, (४) स्वयं न पकाना, (५) दूसरों से न पकवाना, (६) पकानेवालों का अनुमोदन न करना, (७) स्वयं न खरीदना, (८) दूसरों से न खरीदवाना और (९) खरीदने वाले का अनुमोदन न करना। इन दोषों से रहित आहारादि नवकोटिविशुद्ध कहलाते हैं। उद्गम, उत्पादना और एषणा के दोष शास्त्र में आधाकर्म आदि १६ उद्गम के, धात्री, दूती आदि १६ उत्पादना के एवं शंकित आदि १० एषणा के दोष बताए हैं। उनमें से प्रथम वर्ग के दोष दाता से, द्वितीय वर्ग के साधु से और तृतीय वर्ग के दोनों से लगते हैं। . ॥ सप्तम शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त॥ (ख) भगवती (हिन्दीविवेचन) भा. ३, पृ. १०९८. १. (क) भगवती. अ. वृत्ति पत्रांक २९२ २. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २९२ ३. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २९३ ४. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २९४ (ख) भगवती. हिन्दी विवेचन पृ. ११०३ (ख) पिण्डनियुक्ति प्रवचनसारोद्धार आदि ग्रन्थ ।
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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