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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ४. दुष्ट कर्म-द्रव्यों का संचय-दुश्चय है, उसका त्याग करता है। . ५. फिर अपूर्वकरण के द्वारा ग्रन्थिभेदरूप दुष्कर कार्य को करता है।
६. इसके फलस्वरूप दुर्लभ-अनिवृत्तिकरणरूप दुर्लभ वस्तु को उपलब्ध करता है अर्थात् चय-उपार्जन करता है।
७. तत्पश्चात् बोधि का लाभ चय-उपार्जन अनुभव करता है। ८. तदनन्तर परम्परा से सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होता है, यावत् समस्त कर्मों-दुःखों का अन्त (त्याग) कर देता
दान विशेष से बोधि और सिद्धि की प्राप्ति—अन्यत्र भी अनुकम्पा, अकामनिर्जरा, बालतप दानविशेष एवं विनय से बोधिगुण प्राप्ति का तथा कई जीव उसी भव से सर्वकर्मविमुक्त होकर मुक्त हो जाते हैं और कई जीव महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर तीसरे भव में सिद्ध हो जाते हैं, यह उल्लेख मिलता है। निःसंगतादि कारणों से कर्मरहित (मुक्त) जीव की (ऊर्ध्व ) गति-प्ररूपणा
११. अत्थि णं भंते ! अकम्मस्स गती पण्णायति ? हंता, अत्थि। [११ प्र.] भगवन् ! क्या कर्मरहित जीव की गति होती (स्वीकृत की जाती) है? [११ उ.] हाँ, गौतम ! अकर्म जीव की गति होती-स्वीकार की जाती है। . १२. कहं णं भंते ! अकम्मस्स गती पण्णायति ?
गोयमा ! निस्संगताए १ निरंगणताए २ गतिपरिणामेणं ३ बंधणछेयणताए ४ निरिंधणताए ५ पुव्वपओगेणं ६ अकम्मस्स गति पण्णायति।
[१२ प्र.] भगवन् ! अकर्म जीव की गति कैसी होती है ?
[१२ उ.] गौतम ! नि:संगता से, नीरागता (निरंजनता) से, गतिपरिणाम से, बन्धन का छेद (विच्छेद) हो जाने से, निरिन्धनता-(कर्मरूपी ईंधन से मुक्ति) होने से और पूर्वप्रयोग से कर्मरहित जीव की गति होती है।
· १३.[१] कहं णं भंते ! निस्संगताए १ निरंगणताए २ गतिपरिणामेणं ३ बंधणछेयणताए ४ निरिंधणताए ५ पुव्वप्पओगेणं ६ अकम्मस्स गति पण्णायति ? ।
गोयमा ! से जहानामए केइ पुरिसे सुक्कं तुंबं निच्छिदं निरुवहतं आणुपुव्वीए परिकम्मेमाणे १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २८९ २. 'अणुकंपऽकामणिजरबालतवे दाण विणए' इत्यादि तथा'केई तेणेव भवेण निव्वुया सव्वकम्मओ मुक्का। केई तइयभवेणं सिज्झिस्संति जिणसगासे'॥१॥- भगवती. अ. वृत्ति, प. २८९ में उद्धत