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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अधिकरण वाला है। श्रमणोपासक के व्रत-प्रत्याख्यान में अतिचार लगने की शंका का समाधान
७. समणोवासगस्स णं भंते ! पुव्वामेव तसपाणसमारंभे पच्चक्खाते भवति, पुढविसमारंभे अपच्चक्खाते भवति, से य पुढविं खणमाणे अन्नयरं तसं पाणं विहिंसेज्जा, से णं भंते ! तं वतं अतिचरति ?
णो इणढे समढे, नो खलु से तस्स अतिवाताए आउट्ठति।
[७ प्र.] भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले से ही त्रस-प्राणियों के समारम्भ (हनन) का प्रत्याख्यान कर लिया हो, किन्तु पृथ्वीकाय के समारम्भ (वध) का प्रत्याख्यान नहीं किया हो, उस श्रमणोपासक से पृथ्वी खोदते हुए किसी त्रसजीव की हिंसा हो जाए, तो भगवन् ! क्या उसके व्रत (त्रसजीववध-प्रत्याख्यान) का उल्लंघन होता है ? . [७ उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं; क्योंकि वह (श्रमणोपासक) त्रसजीव के अतिपात (वध) के लिए प्रवृत्त नहीं होता। . ८. समणोवासगस्स णं भंते ! पुव्वामेव वणस्सतिसमारंभे पच्चाक्खाते, सेय पुढविं खणमाणे अन्नरस्स रुक्खस्स मूलं छिंदेज्जा, से णं भंते ! तं वतं अतिचरति ?
णो इणढे समढे, नो खलु से तस्स अतिवाताए आउट्ठति।
[८ प्र.] भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले से ही वनस्पति के समारम्भ का प्रत्याख्यान किया हो, (किन्तु पृथ्वी के समारम्भ का प्रत्याख्यान न किया हो,) पृथ्वी को खोदते हुए (उसके हाथ से) किसी वृक्ष का मूल छिन्न हो (कट) जाए, तो भगवन् ! क्या उसका व्रत भंग होता है ?
_[८ उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि वह श्रमणोपासक उस (वनस्पति) के अतिपात (वध) के लिए प्रवृत्त नहीं होता।
विवेचन–श्रमणोपासक के व्रतप्रत्याख्यान में दोष लगने की शंका का समाधान—प्रस्तुत सूत्र-द्वय में त्रसजीवों या वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा का त्याग किये हुए व्यक्तियों को पृथ्वी खोदते समय किसी त्रस जीव का या वनस्पतिकाय का हनन हो जाने से स्वीकृत व्रतप्रत्याख्यान में अतिचार लगने का निषेध प्रतिपादित किया गया है। ___अंहिसाव्रत में अतिचार नहीं लगता–त्रसजीववध का या वनस्पतिकायिक-जीववध का प्रत्याख्यान किये हुए श्रमणोपासक से यदि पृथ्वी खोदते समय किसी त्रसजीव की हो जाए अथवा किसी वृक्ष की जड़ कट जाए तो उसके द्वारा गृहीत व्रत-प्रत्याख्यान में दोष नहीं लगता, क्योंकि सामान्यतः देशविरति श्रावका संकल्पपूर्वक आरम्भी हिंसा का त्याग होता है, इसलिए जिन जीवों की हिंसा का उसने प्रत्याख्यान किया है, उन जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा करने में जब तक वह प्रवृत्त नहीं होता, तब तक उसका व्रतभंग नहीं होता। १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २८९ २. भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक २८९