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________________ ११० और तीसरे समय में आहारक होता है। सर्वाल्पाहारता : दो समयों में—उत्पत्ति के प्रथम समय में आहार ग्रहण करने का हेतुभूत शरीर अल्प होता है, इसलिए उस समय जीव सर्वाल्पाहारी होता है तथा अन्तिम समय में प्रदेश के संकुचित हो जाने एवं जीव के शरीर के अल्प अवयवों में स्थिति हो जाने के कारण जीव सर्वाल्पाहारी होता है। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अनाभोगनिर्वर्तित आहार की अपेक्षा से यह कथन किया गया | क्योंकि अनाभोगनिर्वर्तित आहार बिना इच्छा के अनुपयोगपूर्वक ग्रहण किया जाता है। वह उत्पत्ति के प्रथम समय से लेकर अन्तिम समय तक प्रतिसमय सतत होता है, किन्तु आभोगनिर्वर्तित आहार नियत समय पर और इच्छापूर्वक ग्रहण किया हुआ होता है ।" लोक के संस्थान का निरूपण ५. किंसंठिते णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? गोयमा ! सुपतिट्ठिगसंठिते लोए पण्णत्ते, हेट्ठा वित्थिण्णे जाव उप्पिं उद्धमुइंगाकारसंठिते । तंसि च णं सासयंसि लोगंसि हेट्ठा वित्थिण्णंसि जाव उप्पिं उद्धमुइंगाकारसंठितंसि उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणति पासति, अजीवे वि जाणति पासति । ततो पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति । [५ प्र.] भगवन् ! लोक का संस्थान (आकार) किस प्रकार का कहा गया है ? [५ उ.] गौतम ! लोक का संस्थान सुप्रतिष्ठित ( सकोरे) के आकार का कहा गया है। वह नीचे विस्तीर्ण (चौड़ा) है और यावत् ऊपर ऊर्ध्व मृदंग के आकार का है। ऐसे नीचे से विस्तृत यावत् ऊपर ऊर्ध्वमृदंगाकार इस शाश्वत लोक में उत्पन्न केवलज्ञान- दर्शन के धारक, अर्हन्त, जिन, केवली जीवों को भी जानते और देखते हैं तथा अजीवों को भी जानते और देखते हैं। इसके पश्चात् वे सिद्ध, बुद्ध मुक्त होते हैं, यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं। विवेचन - लोक के संस्थान का निरूपण - प्रस्तुत सूत्र में लोक के आकार का उपमा द्वारा निरूपण किया गया है। लोक का संस्थान— नीचे एक उल्टा सकोरा (शराव) रखा जाए, फिर उस पर एक सीधा और उस पर एक उल्टा सकोरा रखा जाए तो लोक का संस्थान बनता है। लोक का विस्तार नीचे सात रज्जू परिमाण है। ऊपर क्रमशः घटते हुए सात रज्जू की ऊँचाई पर एक रज्जू विस्तृत है। तत्पश्चात् उत्तरोत्तर क्रमश: बढ़ते हुए साढ़े दस रज्जू की ऊँचाई पर ५ रज्जू और शिरोभाग में १ रज्जू का विस्तार है। मूल (नीचे) से लेकर ऊपर तक की ऊँचाई १४ रज्जू है। लोक की आकृति को यथार्थरूप से समझाने के लिए लोक के तीन विभाग किए गए है— अधोलोक, १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २८७ - २८८
SR No.003443
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 02 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages669
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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