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सप्तम शतक : उद्देशक-१
१०९ ही चौथे समय में आहारक होते हैं। इनके सिवाय शेष जीव, तीसरे समय में आहारक होते हैं।
४.[१] जीवे णं भंते ! कं समयं सव्वप्पाहारए भवति ? गोयमा ! पढमसमयोवन्नए वा, चरमसमयभवत्थे वा, एत्थ णं जीवे सव्वप्पाहारए भवति। [४-१ प्र.] भगवन् ! जीव किस समय में सबसे अल्प आहारक होता है ?
[४-१ उ.] गौतम ! उत्पत्ति के प्रथम समय में अथवा भव (जीवन) के अन्तिम (चरम) समय में जीव सबसे अल्प आहार वाला होता है।
[२] दंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणियाणं। [४-२] इसी प्रकार वैमानिकपर्यन्त चौवीस ही दण्डकों में कहना चाहिए।
विवेचन-जीवों के अनाहार और सर्वाल्पाहार के काल की प्ररूपणा द्वितीय सूत्र से चतुर्थ सूत्र तक जीव के अनाहारकत्व और सर्वाल्पाहारकत्व की प्ररूपणा चौवीस ही दण्डकों की अपेक्षा से की गई है।
परभवगमनकाल में आहारक-अनाहारक रहस्य–सैद्धान्तिक दृष्टि से एक भव का आयुष्य पूर्ण करके जीव जब ऋजुगति से परभव में (उत्पत्तिस्थान में) जाता है, तब परभवसम्बन्धी आयुष्य के प्रथम समय में ही आहारक होता है, किन्तु जब (वक्र) विग्रहगति से जाता है, तब प्रथम समय में वक्र मार्ग में चलता हुआ वह अनाहारक होता है, क्योंकि उत्पत्तिस्थान पर न पहुँचने से उसके आहरणीय पुद्गलों का अभाव होता है तथा जब एक वक्र (मोड़) से दो समय में उत्पन्न होता है, तब पहले समय में अनाहारक और द्वितीय समय में आहारक होता है, जब दो वक्रों (मोड़ों) से तीन समय में उत्पन्न होता है। तब प्रारम्भ के दो समयों तक अनाहारक रहता है, तीसरे में आहारक होता है और जब तीन वक्रों से चार समय में उत्पन्न होता है, तब तीन समय तक अनाहारक और चौथे में नियमत: आहारक होता है। तीन मोड़ों का क्रम इस प्रकार होता हैवसनाड़ी से बाहर विदिशा में रहा हुआ कोई जीव, जब अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में त्रसनाड़ी से बाहर की दिशा में उत्पन्न होता है, तब वह अवश्य ही प्रथम एक समय में विश्रेणी से समश्रेणी में आता है। दसरे समय में त्रसनाड़ी में प्रविष्ट होता है, तृतीय समय में ऊर्ध्वलोक में जाता है और चौथे समय में लोकनाड़ी से बाहर निकलकर उत्पत्तिस्थान में उत्पन्न होता है। इनमें से पहले के तीन समयों में तीन वक्र समश्रेणी में जाने से हो जाते हैं । जब त्रसनाड़ी से निकल कर जीव बाहर विदिशा में ही उत्पन्न हो जाता है तो चार समय के चार वक्र भी हो जाते हैं, पांचवे समय में वह उत्पत्तिस्थान को प्राप्त करता है। ऐसा कई आचार्य कहते हैं।
जो नारकादि त्रस, त्रसजीवों में ही उत्पन्न होता है, उसका गमनागमन त्रसनाड़ी से बाहर नहीं होता, अतएव वह तीसरे समय में नियमत: आहारक हो जाता है । जैसे—कोई मत्स्यादि भरतक्षेत्र के पूर्वभाग में स्थित है, वह वहाँ से मरकर ऐरवतक्षेत्र के पश्चिम भाग में नीचे नरक में उत्पन्न होता है, तब एक ही समय में भरत क्षेत्र के पूर्व भाग से पश्चिम भाग में जाता है, दूसरे समय में ऐरवत क्षेत्र के पश्चिम भाग में जाता है और तीसरे समय में नरक में उत्पन्न होता है । इन तीन समयों में से प्रथम दो में वह अनाहारक