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छठा शतक : उद्देशक - १०
[ २ ] से केणट्ठेणं० ?
गोयमा ! केवली णं पुरित्थमेणं मितं पि जाणति अमितं पि जाणति जाव निव्वुडे दंसणे केवलिस्स, से तेणट्ठेणं० ।
[१४-१ प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है ?
[१४-१ उ.] गौतम ! केवली भगवन् पूर्व दिशा में मित (परिमित) को भी जानते हैं और अमित को भी जानते हैं; यावत् केवली का (ज्ञान और ) दर्शन निर्वृत्त, (परिपूर्ण, कृत्स्न और निरावरण) होता है। हे गौतम ! इस कारण से ऐसा कहा जाता है।
विवेचन — केवली भगवान् का आत्मा द्वारा ही ज्ञान - दर्शन - सामर्थ्य — इस सम्बंध में इसी शास्त्र के पंचम शतक, चतुर्थ उद्देशक में विशेष विवेचन दिया गया है।
दसवें उद्देशक की संग्रहणी गाथा
१५. गाहा
जीवाणं सुहं दुक्खं जीवे जीवति तहेव भविया य । एतदुक्खवेद अत्तमायाय केवली ॥ १ ॥
सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० ।
॥ छट्ठे सए : दसमो उद्देसओ समत्तो ॥ ॥ छट्ठं सतं समत्तं ।।
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[१५ गाथार्थ - ] जीवों का सुख-दुःख, जीव, जीव का प्राणधारण, भव्य, एकान्तदुःखवेदना, आत्मा • द्वारा पुद्गलों का ग्रहण और केवली, इतने विषयों पर इस दसवें उद्देशक में विचार किया गया है।
'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरने
लगे ।
॥ छठा शतक : दशम उद्देशक समाप्त ॥
छठा शतक सम्पूर्ण