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व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [१-२ उ.] गौतम ! यह जम्बूद्दीप नामक द्वीप एक लाख योजन का लम्बा-चौड़ा है। इसकी परिधि ३ लाख १६ हजार दो सौ २७ योजन, ३ कोश, १२८ धनुष और १३१ अंगुल से कुछ अधिक है। कोई महर्द्धिक यावत् महानुभाग देव एक बड़े विलेपन वाले गन्धद्रव्य के डिब्बे को लेकर उघाड़े और उघाड़ कर तीन चुटकी बजाए, उतने समय में उपर्युक्त जम्बूद्वीप की २१ बार परिक्रमा करके वापस शीघ्र आए तो हे गौतम ! (मैं तुम से पूछता हूँ—) उस देव की इस प्रकार की शीघ्र गति से गन्ध पुद्गलों के स्पर्श से यह सम्पूर्ण जम्बूद्वीप स्पृष्ट हुआ या नहीं?
[गौतम –] हाँ, भगवन् ! वह स्पृष्ट हो गया।
[भगवान् ] है गौतम ! कोई पुरुष उन गन्धपुद्गलों को बेर की गुठली जितना भी, यावत् लिक्षा जितना भी दिखलाने में समर्थ है ? । [गौतम–] भगवन् ! यह अर्थ समर्थ नहीं है।
[भगवान् —] है गौतम ! इसी प्रकार जीव के सुख-दुःख को भी बाहर निकाल कर बतलाने में, यावत् कोई भी व्यक्ति समर्थ नहीं है।
विवेचन–अन्यतीर्थिकमत निराकरणपूर्वक सम्पूर्ण लोक में सर्वजीवों के सुख-दुःख को अणुमात्र भी दिखाने की असमर्थता की प्ररूपणा–प्रस्तुत सूत्र में राजगृहवासी जीवों के सुख-दुःख को लिक्षाप्रमाण भी दिखाने में असमर्थता की अन्यतीर्थिकप्ररूपणा का निराकरण करते हुए सम्पूर्ण लोक में सर्वजीवों के सुख-दुःख को अणुमात्र भी दिखाने की असमर्थता की सयुक्तिक भगवद्-मत प्ररूपणा प्रस्तुत की गई है।
दृष्टान्त द्वारा स्वमत-स्थापना—जैसे गन्ध के पुद्गल मूर्त होते हुए भी अतिसूक्ष्म होने के कारण अमूर्ततुल्य हैं, उन्हें दिखलाने में कोई समर्थ नहीं, वैसे ही समग्र लोक के सर्वजीवों के सुख-दुःख को भी बाहर निकाल कर दिखाने में कोई भी समर्थ नहीं है। जीव का निश्चित स्वरूप और उसके सम्बंध में अनेकान्त शैली में प्रश्नोत्तर
२. जीवे णं भंते ! जीवे ? जीवे जीवे ? गोयमा ! जीवे ताव नियमा जीवे, जीवे वि नियमा जीवे। [२ प्र.] भगवन् ! क्या जीव चैतन्य है या चैतन्य जीव है ?
[२ उ.] गौतम ! जीव जो नियमतः (निश्चितरूप से) जीव (चैतन्य स्वरूप) और जीव (चैतन्य) भी निश्चितरूप से जीवरूप है।
३. जीवे णं भंते ! नेरइए ? नेरइए जीवे ? गोयमा ! नेरइए ताव नियमा जीवे, जीवे पुण सिय नेरइए, सिय अनेरइए।
१. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २८५