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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] [५३ बताए बिना आहार, श्वासोच्छ्वास आदि की बात सरलतापूर्वक समझ में नहीं आ सकती। अल्प शरीर वाले से महाशरीर वाले का आहार अधिक : यह कथन प्रायिक-प्रस्तुत कथन अधिकांश (बहुत) को दृष्टि में रखकर कहा गया है। यद्यपि लोक में यह देखा जाता है कि बड़े शरीर वाला अधिक खाता है और छोटे शरीर वाला कम, जैसे कि हाथी और खरगोश; तथापि कहींकहीं यह बात अवश्य देखी जाती है कि बड़े शरीर वाला कम और छोटे शरीर वाला अधिक आहार करता है। यौगलिकों का शरीर अन्य मनुष्यों की अपेक्षा बड़ा होता है, लेकिन उनका आहार कम होता है। दूसरे मनुष्यों का शरीर यौगलिकों की अपेक्षा छोटा होता है, किन्तु उनका आहार अधिक होता है। ऐसा होने पर भी प्राय: यह सत्य ही है कि बड़े शरीर वाले का आहार अधिक होता है, कदाचित् नैरयिकों में भी आहार और शरीर का व्यतिक्रम कहीं पाया जाए तो भी बहुतों की अपेक्षा यह कथन होने से निर्दोष बड़े शरीर वाले को वेदना और श्वासोच्छ्वास-मात्रा अधिक-लोकव्यवहार में भी देखा जाता है कि बड़े को जितनी ताड़ना होती है, उतनी छोटे को नहीं। हाथी के पैर के नीचे और जीव तो प्रायः दब कर मर जाते हैं, परन्तु चींटी प्रायः बच जाती है। इसी प्रकार महाशरीर वाले नारकों को क्षुधा की वेदना तथा ताड़ना और क्षेत्र आदि से उत्पन्न पीड़ा भी अधिक होती है, इस कारण उन्हें श्वासोच्छ्वास भी अधिक लेना होता है। नारक : अल्पकर्मी एवं महाकर्मी-जो नारक पहले उत्पन्न हो चुके, उन्होंने नरक का आयुष्य तथा अन्य कर्म बहुत-से भोग लिये हैं, अतएव उनके बहुत-से-कर्मों की निर्जरा हो चुकी है, इस कारण वे अल्पकर्मी हैं। जो नारक बाद में उत्पन्न हुए हैं, उन्हें आयु और सात कर्म बहुत भोगने बाकी हैं, इसलिए वे महाकर्मी (बहुत कर्म वाले) हैं। यह सूत्र समान स्थिति वाले नैरयिकों की अपेक्षा से समझना चाहिए। यही बात वर्ण और लेश्या (भावलेश्या) के सम्बन्ध में समझनी चाहिए। संज्ञिभूत-असंज्ञिभूत-वृत्तिकार ने संज्ञिभूत के चार अर्थ बताए हैं-(१) संज्ञा का अर्थ है-सम्यग्दर्शन; सम्यग्दर्शनी जीव को संज्ञी कहते हैं । जिस जीव को संज्ञीपन प्राप्त हुआ, उसे संज्ञिभूत (सम्यग्दृष्टि) कहते हैं। (२) अथवा संज्ञिभूत का अर्थ है-जो पहले असंज्ञी (मिथ्यादृष्टि) था, और अब संज्ञी (सम्यग्दृष्टि) हो गया है, अर्थात्--जो नरक में ही मिथ्यात्व को छोड़कर सम्यग्दृष्टि हुआ है, वह संज्ञी संज्ञिभूत कहलाता है। असंज्ञिभूत का अर्थ मिथ्यादृष्टि है। (३) एक आचार्य के मतानुसार संज्ञिभूत का अर्थ संज्ञी पंचेन्द्रिय है। अर्थात्-जो जीव नरक में जाने से पूर्व संज्ञी पंचेन्द्रिय था, उसे संज्ञिभूत कहा जाता है। नरक में जाने से पूर्व जो असंज्ञी था, उसे यहाँ असंज्ञिभूत कहते हैं। अथवा संज्ञिभूत का अर्थ पर्याप्त और असंज्ञितभूत का अर्थ अपर्याप्त है। उक्त सभी अर्थों की दृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि संज्ञिभूत को नरक में तीव्र वेदना होती है और असंज्ञिभूत को अल्प। संज्ञिभूत (सम्यग्दृष्टि) को नरक में जाने पर पूर्वकृत अशुभ कर्मों का विचार करने से घोर पश्चात्ताप होता है-'अहो! मैं कैसे घोर संकट में आ फंसा! अर्हन्त भगवान् के सर्वसंकट-निवारक एवं परमानन्ददायक धर्म का मैंने आचरण नहीं किया, अत्यन्त दारुण परिणाम-रूप कामभोगों के जाल में फंसा रहा, इसी कारण यह अचिन्तित आपदा आ पड़ी है।' इस प्रकार की मानसिक वेदना के कारण वह महावेदना का अनुभव करता है।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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