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________________ प्रथम शतक : उद्देशक-२] [५१ किरिया कज्जंति। तत्थ णं जेते पमत्तसंजता तेसिणं दो किरियाओ कज्जति, तं०-आरम्भिया य १ मायावत्तिया य २। तत्थ णं जे ते संजतासंजता तेसि णं आइल्लाओ तिन्नि किरियाओ कजंति। अस्संजताणं चत्तारि किरियाओ कजंति-आरं०४। मिच्छादिट्ठीणं पंच। सम्मामिच्छादिट्ठीणं पंच ५। [१०-२ प्र.] भगवन्! क्या सब मनुष्य समान क्रिया वाले हैं ? [१०-२ उ.] गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [प्र.] भगवन्! यह आप किस कारण से कहते हैं ? [उ.] गौतम! मनुष्य तीन प्रकार के कहे गये हैं; वे इस प्रकार-सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि। उनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे तीन प्रकार के कहे गये हैं, वे इस प्रकार-संयत, संयतासंयत और असंयत। उनमें जो संयत हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-सरागसंयत और वीतरागसंयत। उनमें जो वीतरागसंयत हैं, वे क्रियारहित हैं, तथा जो इनमें सरागसयंत हैं, वे भी दो प्रकार के कहे गये हैं, वे इस प्रकार -प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत। उनमें जो अप्रमत्तसंयत हैं, उन्हें एक मायाप्रत्यया क्रिया लगती है। उनमें जो प्रमत्तसंयत हैं, उन्हें दो क्रियाएँ लगती हैं, वे इस प्रकारआरम्भिकी और मायाप्रत्यया। तथा उनमें जो संयतासंयत हैं, उन्हें आदि की तीन क्रियाएँ लगती हैं, वे इस प्रकार-आरम्भिकी, पारिग्रहिकी और मायाप्रत्यया। असंयतों को चार क्रियाएँ लगती हैं- आरम्भिकी, पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया और अप्रत्याख्यानी क्रिया। मिथ्यादृष्टियों को पांचों क्रियाएँ लगती हैंआरम्भिकी पारिग्रहिकी, मायाप्रत्यया, अप्रत्याख्यानी क्रिया और मिथ्यादर्शनप्रत्यया। सम्यग्मिथ्यादृष्टियों (मिश्रदृष्टियों) को भी ये पांचों क्रियाएँ लगती हैं। ११. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा असुरकुमारा (सु.६)।नवरं वेयणाए नाणत्तंमायिमिच्छादिट्ठीउववनगा य अप्पवेदणतरागा, अमायिसम्मट्ठिीउववनगा य महावेयणतरागा भाणियव्वा जोतिस-वेमाणिया। [११] वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक के आहारादि के सम्बन्ध में सब वर्णन असुरकुमारों के समान समझना चाहिए। विशेषता यह है कि इनकी वेदना में भिन्नता है। ज्योतिष्क और वैमानिकों में जो मायी-मिथ्यादृष्टि के रूप में उत्पन्न हुए हैं, वे अल्पवेदना वाले हैं, और जो अमायी सम्यग्दृष्टि के रूप में उत्पन्न हुए हैं, वे महावेदनावाले होते हैं, ऐसा कहना चाहिए। चौबीस दंडक में लेश्या की अपेक्षा समाहारादि विचार १२. सलेसा णं भंते! नेरइया सव्वे समाहारगा? ओहियाणं, सलेसाणं, सुक्कलेसाणं, एएसि णं तिण्हं एक्को गमो। कण्हलेसनीललेसाणं पि एक्को गमो, नवरं वेदणाए-मायिमिच्छादिट्ठीउववन्नगा य, अमायिसम्मट्ठिीउववण्णगा य भाणियव्वा । मणुस्सा किरियासु सराग-वीयराग-पमत्तापमत्ता ण भाणियव्वा। काउलेसाण वि एसेव गमो, नवरं नेरइए जहा ओहिए दंडए तहा भाणियव्वा। तेउलेसा पम्हलेसा जस्स अत्थि जहा ओहिओ दंडओ तहा भाणियव्वा, नवरं मणुस्सा सरागा वीयरागा य न भाणियव्वा।गाहा
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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