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प्रथम शतक : उद्देशक-१]
[३७ भव की अपेक्षा से ज्ञानादिक की प्ररूपणा
१०.[१] इहभविए भंते! नाणे ? परभविए नाणे ? तदुभयभविए नाणे ? गोयमा! इहभविए वि नाणे, परभविए वि नाणे, तदुभयभविए वि नाणे। [१०-१ प्र.] हे भगवन्! क्या ज्ञान इहभविक है ? परभविक है ? या तदुभयभविक हैं ? [१०-१ उ.] गौतम! ज्ञान इहभविक भी है, परभविक भी है और तदुभयभविक भी है। [२]दंसणं पि एवमेव। [१०-२] इसी तरह दर्शन भी जान लेना चाहिए। [३] इहभविए भंते! चरित्ते ? पराविए चरित्ते ? तदुभयभविए चरित्ते ? गोयमा! इहभविए चरित्ते, नो परभविए चरित्ते, नो तदुभयभविए चरित्ते। [१०-३ प्र.] हे भगवन्! क्या चारित्र इहभविक है, परभविक है या तदुभयभविक है ? [१०-३ उ.] गौतम! चारित्र इहभविक है, वह परभविक नहीं है और न तदुभयभविक है। [४] एवं तवे, संजमे। [१०-४] इसी प्रकार तप और संयम के विषय में भी जान लेना चाहिए।
विवेचन-भव की अपेक्षा ज्ञानादिसम्बन्धी प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत सूत्र में ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और संयम के इहभवं, परभव और उभयभव में अस्तित्व के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर अंकित हैं। ज्ञान और दर्शन दोनों यहाँ वहाँ सर्वत्र रहते हैं, किन्तु चारित्र, तप और संयम इस जीवन तक ही रहते हैं। ये परलोक में साथ नहीं रहते, क्योंकि चारित्र, तप, संयम आदि की जो जीवनपर्यन्त प्रतिज्ञा ली जाती है, वह इस जीवन के समाप्त होने पर पूर्ण हो जाती है, मोक्ष में चारित्र का कुछ भी प्रयोजन नहीं है। देवगति प्राप्त होने पर वहाँ संयम आदि सम्भव नहीं हैं।
उभयभविक का समावेश परभविक में ही हो जाता है, तथापि उसे पृथक् कहने का आशय यह है कि ज्ञान और दर्शन परतरभविक अर्थात् अगले भव से भी अगले भव में साथ जा सकते हैं। असंवुड-संवुड विषयक सिद्धता की चर्चा
११.[१]असंवुडे णं भंते! अणगारे किं सिज्झति ? बुज्झति ? मुच्चति ? परिनिव्वाति ? सव्वदुक्खाणमंतं करेति ?
गोयमा! नो इणढे समढे। से केणटेणं जाव नो अंतं करेइ ?
गोयमा! असंवुडे अणगारे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ घणिसबंधणबद्धाओ पकरेति,हस्सकालद्वितीयाओ दीहकालद्वितीयाओ पकरेति, मंदाणुभागाओ १. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३३