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सलेश्य जीवों में आरंभ प्ररूपणा
९. [१] सलेसा जहा ओहिया (सु.७ ) ।
[ २ ] किण्हलेस - नीललेस काउलेसा जहा ओहिया जीवा, नवरं पमत्त अप्पमत्ता न भाणियव्वा । तेउलेसा पम्हलेसा सुक्कलेसा जहा ओहिया जीवा (सु. ७), नवरंसिद्धा न भाणियव्वा ।
[९-१-२] लेश्यावाले जीवों के विषय में सामान्य ( औधिक) जीवों की तरह कहना चाहिए। कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले जीवों के सम्बन्ध में सामान्य जीवों की भांति ही सब कथन समझना चाहिए; किन्तु इतना विशेष है कि (सामान्य जीवों के आलापक में उक्त ) प्रमत्त और अप्रमत्त यहाँ नहीं कहना चाहिए। तेजोलेश्या वाले, पद्मलेश्या वाले और शुक्ललेश्या वाले जीवों के विषय में भी औघिक जीवों की तरह कहना चाहिए; किन्तु इतना विशेष है कि सामान्य जीवों में से सिद्धों के विषय का कथन यहाँ नहीं करना चाहिए ।
[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
विवेचन - विविध पहलुओं से आरम्भी - अनारम्भी विचार- प्रस्तुत तीन सूत्रों (७-८९) में सामान्य जीवों, चतुर्विंशतिदण्डकीय जीवों और सलेश्य जीवों की अपेक्षा से आत्मारम्भ, परारम्भ, तदुभयारम्भ और अनारम्भ का विचार किया गया है।
आरम्भ- यह जैन पारिभाषिक शब्द है । इसका अर्थ है - ऐसा सावद्य कार्य करना, या किसी आश्रव में प्रवृत्ति करना, जिससे किसी जीव को कष्ट पहुँचे या उसके प्राणों का घात हो ।
आत्मारम्भी - जो स्वयं आश्रवद्वार में प्रवृत्त होता है या आत्मा द्वारा स्वयं आरम्भ करता है। परारम्भी - दूसरे को आश्रव में प्रवृत्त करने वाला या दूसरे से आरम्भ कराने वाला । तदुभयारम्भी (उभयारंभी ) - जो आत्मारम्भ और परारम्भ दोनों करता है I
अनारम्भी - जो आत्मारम्भ, परारम्भ और उभयारम्भ से रहित हो; या उपयोगपूर्वक प्रतिलेखना आदि प्रवृत्ति करने वाला संयत ।
१.
संयत-असंयत- जो जीव सब प्रकार की बाह्याभ्यन्तर ग्रन्थि से तथा विषय-कषाय से निवृत्त हो चुके हैं वे संयत और जो इनसे अनिवृत्त हैं तथा आरम्भ में प्रवृत्त हैं, वे असंयत कहलाते हैं । २
२.
शुभयोग-उपयोगपूर्वक - सावधानतापूर्वक योगों की प्रवृत्ति ।
लेश्या - कृष्ण आदि द्रव्यों के सम्बन्ध से आत्मा में उत्पन्न होने वाले परिणाम ।
कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्राऽयं लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥ भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ३१ से ३३ तक