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________________ ५०८] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समझना चाहिए सातों नरकपृथ्वियों में १२ मुहूर्त्त तक न तो कोई जीव उत्पन्न होता है, और न ही किसी जीव का मरण ( उद्वर्तन) होता है। इस प्रकार का उत्कृष्ट विरहकाल होने से इतने समय तक नैरयिक जीव अवस्थित रहते हैं; तथा दूसरे १२ मुहूर्त्त तक जितने जीव नरकों में उत्पन्न होते हैं उतने ही जीव वहां से मरते हैं, यह भी नैरयिकों का अवस्थानकाल है। तात्पर्य यह है कि २४ मुहूर्त्त तक नैरयिकों की (हानि - वृद्धिरहित) एक परिमाणता होने से उनका अवस्थानकाल २४ मुहूर्त का कहा गया है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का अवस्थानकाल उत्कृष्ट दो अन्तर्मुहूर्त्त का बताया गया है। एक अन्तर्मुहूर्त्त तो उनका विरहकाल है । विरहकाल अवस्थानकाल से आधा होता है। इस कारण दूसरे अन्तर्मुहूर्त में वे समान संख्या में उत्पन्न होते और मरते हैं। इस प्रकार इनका अवस्थानकाल दो अन्तर्मुहूर्त्त का हो जाता है। सिद्ध पर्याय सादि अनन्त होने से उनकी संख्या कम नहीं हो सकती, परन्तु जब कोई जीव नया सिद्ध होता है तब वृद्धि होती है। जितने काल तक कोई भी जीव सिद्ध नहीं होता उतने काल तक सिद्ध अवस्थित (उतने के उतने) ही रहते हैं । संसारी एवं सिद्ध जीवों में सोपचयादि चार भंग एवं उनके कालमान का निरूपण २१. जीवा णं भंते! किं सोवचया, सावचया, सोवचयसावचया, निरुवचयनिरवचया ? गोमा ! जीवाणो सोवचया, नो सावचया, जो सोवचयसावचया, निरुवचयनिरवचया । [२१ प्र.] भगवन्! क्या जीव सोपचय (उपचयसहित) हैं, सापचय (अपचयसहित) हैं, सोपचयसापचय (उपचय- अपचयसहित ) हैं या निरुपचय (उपचयरहित) - निरपचय (अपचयरहित ) हैं ? [२१ उ.] गौतम! जीव न सोपचय हैं और न ही सापचय हैं, और न सोपचय - सापचय हैं, किन्तु निरुचय - निरपचय हैं । २२. एगिंदिया ततियपदे, सेसा जीवा चउहि वि पदेहिं भाणियव्वा । [२२] एकेन्द्रिय जीवों में तीसरा पद (विकल्प - सोपचय - सापचय) कहना चाहिए। शेष सब जीवों में चारों ही पद (विकल्प) कहने चाहिए। २३. सिद्धा णं भंते!० पुच्छा । गोयमा ! सिद्धा सोवचया, णो सावचया, , णो सोवचयसावचया, निरुवचयनिरवचया । [२३ प्र.] भगवन् ! क्या सिद्ध भगवान् सोपचय हैं, सापचय हैं, सोपचय - स -सापचय हैं या निरुपचय निरपचय हैं ? [२३ उ.] गौतम! सिद्ध भगवान् सोपचय हैं, सापचय नहीं हैं, सोपचय - सापचय भी नहीं हैं, १. (क) भगवतीसूत्र, अ. वृत्ति, पत्रांक २४५ (ख) भगवतीसूत्र ( हिन्दी विवेचन ) भा. २, पृ. ९११-९१२
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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