SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 534
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम शतक : उद्देशक-७] [४९३ [२] से केणटेणं०? गोयमा! असुरकुमारा णं पुढविकायं समारंभंति जाव तसकायं समारंभंति, सरीरा परिग्गहिया भवंति, कम्मा परिग्गहिया भवंति, भवणा परि० भवंति, देवा देवीओ मणुस्सा मणुस्सीओ तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ परिग्गहियाओ भवंति, असण-सयणभंडमत्तोवगरणा परिग्गहिया भवंति, सचित-अचित्त-मीसयाइं दव्वाइं परिग्गहियाइं भवंति; से तेणद्वेणं तहेव। [३१-२ प्र.] भगवन्! असुरकुमार किस कारण से सारम्भ एवं सपरिग्रह होते हैं, किन्तु अनारम्भी एवं अपरिग्रही नहीं होते? _ [३१-२ उ.] गौतम! असुरकुमार पृथ्वीकाय से लेकर त्रसकाय तक का समारम्भ करते हैं, तथा उन्होंने शरीर परिगृहीत किये हुए हैं, कर्म परिगृहीत किये हुए हैं, भवन परिगृहीत (ममत्वपूर्वक ग्रहण) किये हुए हैं, वे देव-देवियों, मनुष्य पुरुष-स्त्रियों, तिर्यञ्च नर-मादाओं को परिगृहीत किये हुए हैं, तथा वे आसन, शयन, भाण्ड (मिट्टी के बर्तन या अन्य सामान) मात्रक (बर्तन कांसी आदि धातुओं के पात्र), एवं विविध उपकरण (कड़ाही, कुड़छी आदि) परिगृहीत किये (ममतापूर्वक संग्रह किये) हुए हैं; एवं सचित्त, अचित्त तथा मिश्र द्रव्य परिगृहीत किये हुए हैं। इस कारण से वे आरम्भयुक्त एवं परिग्रहसहित हैं, किन्तु अनारम्भी और अपरिग्रही नहीं हैं। [३] एवं जाव थणियकुमारा। [३१-३] इसी प्रकार (नागकुमार से लेकर) यावत् स्तनितकुमार तक कहना चाहिए। ३२. एगिदिया जहा नेरइया। [३२] जिस तरह नैरयिकों के (सारम्भ-सपरिग्रह होने के) विषय में कहा है, उसी तरह (पृथ्वीकायादि) एकेन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए। ३३.[१] बेइंदिया णं भंते! किं सारंभा सपरिग्गहा०? तंचेव जाव सरीरा परिग्गहिया भवंति, बाहरिया भंडमत्तोवगरणा परि० भवंति, सचित्त अचित्त० जाव भवंति। । [३३-१ प्र.] भगवन्! द्वीन्द्रिय जीव क्या सारम्भ-सपरिग्रह होते हैं, अथवा अनारम्भी एवं अपरिग्रही होते हैं ? _ [३३-१ उ.] गौतम! द्वीन्द्रिय जीव भी आरम्भ-परिग्रह से युक्त हैं, वे अनारम्भी-अपरिग्रही नहीं हैं; इसका कारण भी वही पूर्वोक्त है। (वे षट्काय का आरम्भ करते हैं) तथा यावत् उन्होंने शरीर परिगृहीत किये हुए हैं, उनके बाह्य भाण्ड (मिट्टी के बर्तन), मात्रक (कांसे आदि धातुओं के पात्र) तथा विविध उपकरण परिगृहीत किये हुए होते हैं; एवं सचित्त, अचित्त तथा मिश्र द्रव्य भी परिगृहीत किये हुए होते हैं। इसलिए वे यावत् अनारम्भी, अपरिग्रही नहीं होते। [२] एवं जाव चउरिदिया।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy