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________________ ४९२] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र जाता है, तब भी उसकी अवगाहना वही रहती है, इसलिए क्षेत्रस्थानायु की अपेक्षा अवगाहनास्थानायु असंख्यगुणा है। संकोच-विकासरूप अवगाहना की निवृत्ति हो जाने पर भी द्रव्य दीर्घकाल तक रहता है; इसलिए अवगाहना-स्थानायु की अपेक्षा द्रव्यस्थानायु असंख्यगुणा है। द्रव्य की निवृत्ति, या अन्यरूप में परिणति होने पर द्रव्य में बहुत से गुणों की स्थिति चिरकाल तक रहती है, सब गुणों का नाश नहीं होता; अनेक गुण अवस्थित रहते हैं, इसलिए द्रव्यस्थानायु की अपेक्षा भावस्थानायु असंख्यगुणा है। चौबीस दण्डकों के जीवों के आरम्भ-परिग्रहयुक्त होने की सहेतुक प्ररूपणा ३०.[१] नेरइया णं भंते! किं सारंभा सपरिग्गहा ? उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा ? गोयमा! नेरइया सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा णो अपरिग्गहा। [३०-१ प्र.] भगवन्! क्या नैरयिक आरम्भ और परिग्रह से सहित होते हैं, अथवा अनारम्भी एवं अपरिग्रही होते हैं ? [३०-१ उ.] गौतम! नैरयिक सारम्भ एवं सपरिग्रह होते हैं, किन्तु अनारम्भी एवं अपरिग्रही नहीं होते। [२] से केणटेणं जाव अपरिग्गहा ? गोयमा! नेरइया णं पुढविकायं समारंभंति जाव तसकायं समारंभंति, सरीरा परिंग्गहिया भवंति, कम्मा परिग्गहिया भवंति, सचित्त-अचित्त-मीसयाई दव्वाइं परिग्गहियाई भवंति से तेणटेणं तं चेव। [३०-२ प्र.] भगवन्! किस कारण से वे आरम्भयुक्त एवं परिग्रह-सहित होते हैं, किन्तु अनारम्भी एवं अपरिग्रही नहीं होते। [३०-२ उ.] गौतम! नैरयिक पृथ्वीकाय का समारम्भ करते हैं, यावत् त्रसकाय का समारम्भ करते हैं, (इसलिए वे आरम्भयुक्त हैं) तथा उन्होंने शरीर परिगृहीत किये (ममत्वरूप से ग्रहण किये अपनाए) हुए हैं, कर्म (ज्ञानावरणीयादि कर्मवर्गणा के पुद्गलरूप द्रव्यकर्म तथा रागद्वेषादिरूप भावकर्म) परिगृहीत किये हुए हैं, और सचित्त अचित्त एवं मिश्र द्रव्य परिगृहीत किये (ममत्वपूर्वक ग्रहण किये) हुए हैं, इस कारण से हे गौतम! नैरयिक परिग्रहसहित हैं, किन्तु अनारम्भी और अपरिग्रही नहीं हैं। ३१.[१] असुरकुमारा णं भंते! किं सारंभा सपरिग्गहा? उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा ? गोयमा! असुरकुमारा सारंभा सपरिग्गहा, नो अणारंभा अपरिग्गहा। [३१-१ प्र.] भगवन्! असुरकुमारा क्या आरम्भयुक्त एवं परिग्रह-सहित होते हैं, अथवा अनारम्भी एवं अपरिग्रही होते हैं ? [३१-१ उ.] गौतम! असुरकुमार भी सारम्भ एवं सपरिग्रह होते हैं, किन्तु अनारम्भी एवं अपरिग्रही नहीं होते। २. (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक २३६-२३७ (ख) भगवती हिन्दी विवेचन, भा. २, पृ.८८४ (ग) 'स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः' -तत्त्वार्थसूत्र अ.५, सू. ३२
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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