________________
पंचम शतक : उद्देशक-६]
[४७७ गणसंरक्षणतत्पर आचार्य-उपाध्याय के सम्बन्ध में सिद्धत्व प्ररूपणा
१९. आयरिय-उवज्झाए णं भंते! सविसयंसि गणं अगिलाए संगिण्हमाणे अगिलाए उवगिण्हमाणे कतिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झति जाव अंतं करेति?
गोतमा! अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति अत्थेगइए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झति, तच्चं पुण भवग्गहणं नातिक्कमति।
__ [१९ प्र.] भगवन्! अपने विषय में (सूत्र और अर्थ की वाचना-प्रदान करने में) गण (शिष्यवर्ग) को अग्लान (अखेद) भाव से स्वीकार (संग्रह) करतं (अर्थात्-सूत्रार्थ पढ़ाते) हुए तथा आग्लानभाव से उन्हें (शिष्यवर्ग को संयम पालन में सहायता करते हुए आचार्य और उपाध्याय, कितने भव (जन्म) ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं ?
[१९ उ.] गौतम! कितने ही आचार्य-उपाध्याय उसी भव से सिद्ध होते हैं, कितने ही दो भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, किन्तु तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते। .
विवेचन तथारूप आचार्य-उपाध्याय के सम्बन्ध में सिद्धत्वप्ररूपणा—जो आचार्य और उपाध्याय अपने कर्तव्य और दायित्व का भली-भांति वहन करते हैं, उनके सम्बन्ध में एक, दो या अधिक से अधिक तीन भव में सिद्धत्व प्राप्ति की प्ररूपणा की गई है।
एक दो या तीन भव में मुक्त कई आचार्य-उपाध्याय उसी भव में मुक्त हो जाते हैं, कई देवलोक में जा कर दूसरा मनुष्यभव धारण करके मुक्त होते हैं, और कितने ही देवलोक में जाकर तीसरा मनुष्यभव धारण करके मुक्त होते हैं, किन्तु तीन भव से अधिक भव नहीं करते। मिथ्यादोषारोपणकर्ता के दुष्कर्मबन्ध-प्ररूपणा
२०.जेणं भंते! परं अलिएणं असंतएणं अब्भक्खाणेणं अब्भक्खाति तस्सणं कहप्पगारा कम्मा कति?
गोयमा! जेणं परं अलिएणं असतंएणं अब्भक्खाणेणं अब्भक्खाति तस्स णं तहप्पगारा चेव कम्मा कजंति, जत्थेवणं अभिसमागच्छति तत्थेवणं पडिसंवेदेति, ततो से पच्छा वेदेति। सेवं भंते! २ त्ति।
॥ पंचमसए : छट्ठो उद्दसेओ॥ [२० प्र.] भगवन् ! जो दूसरे पर सद्भूत का अपलाप और असद्भूत का आरोप करके असत्य मिथ्यादोषारोपण (अभ्याख्यान) करता है, उसे किस प्रकार के कर्म बंधते हैं ?
_ [२० उ.] गौतम! जो दूसरे पर सद्भूत का अपलाप और असद्भूत का आरोपण करके मिथ्या दोष लगाता है, उसके उसी प्रकार के कर्म बंधते हैं। वह जिस योनि में जाता है, वहीं उन कर्मों को वेदता (भोगता) है और वेदन करने के पश्चात् उनकी निर्जरा करता है।
१. भगवतीसूत्र वृत्ति, पत्रांक २३२