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[ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र
२६. [१] जहा णं भंते! केवली अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणति पासति तथा णं छउमत्थे वि अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणति पासति ?
गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे, सोच्चा जाणति पासति पमाणतो वा ।
[२६ - १ प्र.] भगवन्! जिस प्रकार केवली मनुष्य अन्तकर को, अथवा अन्तिमशरीरी को जानता - देखता है, क्या उसी प्रकार छद्मस्थ- मनुष्य भी अन्तकर को अथवा अन्तिमशरीरी को जानतादेखता है ?
[२६-१ उ.] गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं, (अर्थात् — केवली की तरह छद्मस्थ अपने ही ज्ञान से नहीं जान सकता), किन्तु छद्मस्थ मनुष्य किसी से सुन कर अथवा प्रमाण द्वारा अन्तकर और अन्तिम शरीरी को जानता - देखता है।
[२] से किं तं सोच्चा ?
वा,
सोच्चा णं केवलिस्स वा, केवलिसावयस्स वा, केवलिसावियाए वा, केवलिउवासगस्स केवलिउवासियाए वा, तप्पक्खियस्स वा, तप्पक्खियसावगस्स वा, तप्पक्खियसावियाए वा, तप्पक्खियउवासगस्स वा तप्पक्खियउवासियाए वा । से तं सोच्चा ।
[२६-२ प्र.] भगवन् ! सुन कर (किसी से सुन कर ) का अर्थ क्या है ? ( अर्थात् वह किससे सुन कर जान ( देख पाता है ?)
[२६-२ उ.] हे गौतम! केवली से, केवली के श्रावक से, केवली की श्राविका से, केवली के उपासक से, केवली की उपासिका से, केवली - पाक्षिक ( स्वयंबुद्ध) से केवली पाक्षिक के श्रावक से, केवली - पाक्षिक की श्राविका से, केवली पाक्षिक के उपासक से अथवा केवली पाक्षिक की उपासिका से, इनमें से किसी भी एक से 'सुनकर' छद्मस्थ मनुष्य यावत् जानता और देखता है। यह हुआ 'सोच्चा' – 'सुन कर' का अर्थ |
[३] से किं तं पमाणे ?
पमाणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा—पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे। जहा अणुयोगद्दारे तहा यव्वं पमाणं जाव तेण परं नो अत्तागमे, नो अणंतरागमे, परंपरागमे ।
[२६-३ प्र.] भगवन् (और) वह 'प्रमाण' क्या है ? कितने हैं ?
[२६-३ उ.] गौतम ! प्रमाण चार प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार है— (१) प्रत्यक्ष, (२) अनुमान, (३) औपम्य (उपमान) और (४) आगम । प्रमाण के विषय में जिस प्रकार अनुयोगद्वारसूत्र में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी जान लेना चाहिए; यावत् न आत्मागम, न अनन्तरागम, किन्तु परम्परागम तक कहना चाहिए ।
है ?
२७. केवली णं भंते! चरमकम्मं वा चरमनिज्जरं वा जाणति, पासति ?
हंता, गोयमा ! जाणति, पासति ।
[२७ प्र.] भगवन् ! क्या केवली मनुष्य चरम कर्म को अथवा चरम निर्जरा को जानता देखता