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________________ पंचम शतक : उद्देशक-४] [४४७ के अनुसार अर्धमागधी शब्द स्पष्टतः सूचित करता है कि जिस भाषा में आधी मागधी भाषा हो और आधी दूसरी भाषाएँ मिश्रित हुई हों, वही अर्धमागधी भाषा है। आचार्य जिनदास महत्तर ने निशीथचूर्णि में अर्धमागधी का स्वरूप इस प्रकार बताया है-'मगध देश की आधी भाषा में जो निबद्ध है, वह अर्धमागधी है अथवा अठारह प्रकार की देशी भाषा में नियत हुई जो भाषा है, वह अर्धमागधी है।' 'प्राकृतसर्वस्व' में महर्षि मार्कण्डेय बताते हैं, मगधदेश और सूरसेन देश अधिक दूर न होने से तथा शौरसेनी भाषा में पाली और प्राकृत भाषा का मिश्रण होने से तथा मागधी के साथ सम्पर्क होने से शौरसेनी को ही अर्धमागधी' कहने में कोई आपत्ति नहीं। विभिन्न धर्मों की अलग-अलग देवभाषाओं का समावेश अर्धमागधी में—वैदिक धर्मसम्प्रदाय ने संस्कृत को देवभाषा माना है। बौद्धसम्प्रदाय ने पाली को, इस्लाम ने अरबी को, ईसाई धर्म-सम्प्रदाय ने हिब्रू को देवभाषा माना है। अगर अपभ्रंश भाषा में इन सबको गतार्थ कर दें तो जैनधर्म सम्प्रदाय मान्य देवभाषा अर्धमागधी में इन सब धर्मसम्प्रदायों की देवभाषाओं का समावेश हो जाता है। भ. महावीर के युग में भाषा के सम्बन्ध में यह मिथ्या धारणा फैली हुई थी कि 'अमुक भाषा देवभाषा है, अमुक अपभ्रष्ट भाषा। देवभाषा बोलने से पुण्य और अपभ्रष्ट भाषा बोलने से पाप होता है। परन्तु महावीर ने कहा कि भाषा का पुण्य-पाप से कोई सम्बन्ध नहीं है। चारित्र-आचरण शुद्ध न होगा तो कोरी भाषा दुर्गति से बचा नहीं सकती 'न चित्ता तायए भासा।२ केवली और छद्मस्थ द्वारा अन्तकर, अन्तिम शरीरी चरमकर्म और चरमनिर्जरों को जाननेदेखने के सम्बन्ध में प्ररूपणा २५.केवली णं भंते! अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणति पासइ ? हंता, गोयमा! जाणति पासति। [२५ प्र.] भगवन् ! क्या केवली मनुष्य अन्तकर (कर्मों का या संसार का अन्त करने वाले) को अथवा चरमशरीरी को जानता-देखता है ? [२५ उ.] हाँ गौतम! वह उसे जानता-देखता है। (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्रांक २२१ (ख) सिद्धहेमशब्दानुशासन, अ.८, पाद ४ (ग) भगवतीसूत्र टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त खण्ड २, पृ. १८२ (घ) निशीथचूर्णि (लि. भा. पृ. ३५२) में—'मगहद्धविसयभासानिबद्धं अद्धमागह,अहवा अट्ठारसदेसी भासाणियतं अद्धमागधं।' प्राकृत-सर्वस्व (पृ. १०३) में 'शौरसेन्या अदूरत्वाद इयमेवार्धमागधी।' (क) भगवतीसूत्र (टीकानुवाद-टिप्पणयुक्त)खण्ड १, पृ. १८० ___ 'अद्धमागह' भाषा किल षड्विधा भवति, यदाह 'प्राकृत-संस्कृत-मागध-पिशाचभाषा च शोरसेनी च। षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः ।' -भगवती अ.वृत्ति, पत्रांक २२१ (ग) जैनसाहित्य का बृहत् इतिहास, भा. १, पृ. २०३ (घ) उत्तराध्ययनसूत्र, अ.६, गा.१० न चित्ता'
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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