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________________ पंचम शतक : उद्देशक - १] [ ४१७ न ही उत्सर्पिणी है, किन्तु हे आयुष्मन् ! श्रमण ! वहाँ सदैव अवस्थित (अपरिवर्तनीय) काल कहा गया है। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है ! भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कहकर यावत् गौतमस्वामी विचरण करने लगे । विवेचन — लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि तथा पुष्करार्द्ध में सूर्य के उदयअस्त एवं दिवस-रात्र का विचार —— प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. २२ से २७ तक) में लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधि एवं पुष्करार्द्ध को लेकर विभिन्न दिशओं की अपेक्षा सूर्योदय तथा दिन-रात्रिआगमन का विचार किया गय है । जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र आदि का परिचय — जैन भौगोलिक दृष्टि से जम्बूद्वीप १ लाख योजन का विस्तृत गोलाकार है । जम्बूद्वीप में दो सूर्य और दो चन्द्र हैं। ये मनुष्यलोक में मेरुपर्वत की प्रदक्षिणा करते हुए नित्यगति करते हैं, इन्हीं से काल का विभाग होता है। जम्बूद्वीप को चारों ओर से घेरे हुए लवणसमुद्र है, जिसका पानी खारा है। यह दो लाख योजन विस्तृत है । जम्बूद्वीप और लवणसमुद्र दोनों वलयाकार (गोल) हैं। लवणसमुद्र के चारों ओर धातकीखण्ड द्वीप है। यह चार लाख योजन का वलयाकार है । इसमें १२ सूर्य एवं १२ चन्द्रमा हैं । धातकीखण्ड के चारों ओर कालोद (कालोदधि) समुद्र है, यह ८ लाख योजन का वलयाकार है । कालोद समुद्र के चारों ओर १६ लाख योजन का वलयाकार पुष्कवरद्वीप है। उसके बीच में मानुषोत्तरपर्वत आ गया है, जो अढ़ाई द्वीप और दो समुद्र के चारों ओर गढ़ (दुर्ग) के समान है तथा चूड़ी के समान गोल है । यह पर्वत बीच आ जाने से पुष्करवरद्वीप के दो विभाग हो गये हैं— (१) आभ्यन्तर पुष्करवरद्वीप और (२) बाह्य पुष्करवरद्वीप । आभ्यन्तर पुष्करवरद्वीप में ७२ सूर्य और ७२ चन्द्र हैं। यह पर्वत मनुष्य क्षेत्र की सीमा निर्धारित करता है, इसलिए इसे मानुषोत्तरपर्वत कहते हैं। मानुषोत्तरपर्वत के आगे भी असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं, किन्तु उनमें मनुष्य नहीं हैं। निष्कर्ष यह है कि मनुष्यक्षेत्र में जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड द्वीप और अर्द्धपुष्करवर द्वीप ये ढाई द्वीप और लवणसमुद्र तथा कालोदसमुद्र ये दो समुद्र हैं । अढ़ाई द्वीपों और दो समुद्रों की कुल लम्बाई-चौड़ाई ४५ लाख योजन है । अढ़ाई द्वीप कुल १३२ सूर्य और १३२ चन्द्र हैं, और वे चर (गतिशील) हैं, इससे आगे के सूर्य-चन्द्र अचर (स्थिर) हैं। इसलिए अढ़ाई द्वीप - समुद्रवर्ती मनुष्यक्षेत्र या समयक्षेत्र में ही दिन, रात्रि, अयन, पक्ष, वर्ष आदि काल का व्यवहार होता है। रात्रि-दिवस आदि काल का व्यवहार सूर्य-चन्द्र की गति पर निर्भर होने से तथा इस मनुष्यक्षेत्र के आगे सूर्य-चन्द्र के विमान जहाँ के तहाँ स्थिर होने से, वहाँ दिन रात्रि आदि काल का व्यवहार नहीं होता । ॥ पंचम शतक : प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ १. (क) भगवतीसूत्र (हिन्दी विवेचनयुक्त) भा. २, पृ. ७७३-७७४ (ख) तत्त्वार्थसूत्र भाष्य अ. ३, सू. १२ से १४ तक, पृ. ८३ से ८५, तथा अ. ४, सू. १४-१५, पृ. १०० से १०३ क
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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