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तृतीय शतक : उद्देशक-९]
[३८९ [उ.] गौतम! वह दो प्रकार का कहा गया है। यथा-सुखस्पर्श-परिणाम और दुःख-स्पर्शपरिणाम। दूसरी वाचना में इन्द्रिय-सम्बन्धी सूत्र के अतिरिक्त उच्चावचसूत्र' और 'सुरभिसूत्र' ये दो सूत्र और कहे गए हैं। यथा
[प्र.] भगवन्! क्या उच्चावच (ऊँचे-नीचे) शब्द-परिणामों से परिणत होते हुए पुद्गल परिणत होते हैं', ऐसा कहा जा सकता है ?
[उ.] हाँ, गौतम, ऐसा कहा जा सकता है; इत्यादि सब कथन करना चाहिए। [प्र.] भगवन्! क्या शुभशब्दों के पुद्गल अशुभशब्द रूप में परिणत होते हैं ? [उ.] हाँ, गौतम! परिणत होते हैं; इत्यादि सब वर्णन यहाँ समझना चाहिए।
॥ तृतीयशतक : नवम उद्देशक समाप्त॥
१. (क) जीवाभिगमसूत्र प्रतिपत्ति ३, उद्देशक २, सू. १९१, पृ. ३७३-३७४
(ख) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक २०१-२०२–'सोइंदियविसए....हंता गोयमा!' इत्यादि।