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तृतीय शतक : उद्देशक-४]
[३५३ विकुर्वणा से मायी की विराधना और अमायी की आराधना
१९.[१] से भंते! किं मायी विकुव्वति, अमायी विकुव्वइ ? गोयमा! मायी विकुव्वइ, नो अमाई विकुव्वति।
[१९-१ प्र.] भगवन् ! क्या मायी (सकषाय प्रमत्त) मनुष्य विकुर्वणा करता है, अथवा अमायी (अप्रमत्त-कषायहीन) मनुष्य विकुर्वणा करता है ?
__ [१९-१ उ.] गौतम! मायी (प्रमत्त) मनुष्य विकुर्वणा करता है, अमायी (अप्रमत्त) मनुष्य विकुर्वणा नहीं करता।
[२] से केणढेणं भंते! एवं वुच्चइ जाव नो अमायी विकुव्वइ ?
गोयमा! मायी णं पणीयं पाण-भोयणं भोच्चा भोच्चा वामेति, तस्स णं तेणं पणीएणं पाण-भोयणेणं अट्ठि-अट्ठिमिंजा बहली भवंति, पयणुए मंस-सोणिए भवति, जे वि य से अहाबादरा पोग्गला ते वि य से परिणमंति, तं जहा—सोतिदियत्ताए जाव फासिंदियत्ताए, अट्ठि-अट्ठिमिंज-केस-मंसु-रोम-नहत्ताए सुक्कत्ताए सोणियत्ताए।अमायी णं लूहं पाण-भोयणं भोच्चा भोच्चा णो वामेइ, तस्स णं तेणं लूहेणं पाण-भोयणेणं अट्टि-अद्विमिंजा० तणूपभवति, बहले मसं-सोणिए, जे वि य से अहाबादरा पोग्गला ते वि य से परिणमंति; तं जहा—उच्चारत्ताए पासवणत्ताए जाव' सोणियत्ताए। से तेणढे णं जाव नो अमायी विकुव्वइ।
[१९-२ प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि मायी अनगार विकुर्वणा करता है, अमायी विकुर्वणा नहीं करता ? ।
[१९-२ उ.] गौतम! मायी (प्रमत्त) अनगार प्रणीत (घृतादि रस से सरस-स्निग्ध) पान और भोजन करता है। इस प्रकार बार-बार प्रणीत पान-भोजन करके वह वमन करता है। उस प्रणीत पानभोजन से उसकी हड्डियाँ और हड्डियों में रही हुई मज्जा सघन (ठोस या गाढ) हो जाती है; उसका रक्त
और मांस प्रतनु (पतला–अगाढ़) हो जाता है। उस भोजन के जो यथाबादर (यथोचित स्थूल) पुद्गल होते हैं, उनका उस-उस रूप में परिणमन होता है। यथा श्रोत्रेन्द्रिय रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रिय रूप में (उनका परिणमन होता है।); तथा हड्डियों, हड्डियों की मज्जा, केश, श्मश्रु (दाढ़ी-मूंछ), रोम, नख, वीर्य और रक्त के रूप में वे परिणत होते हैं।
अमायी (अप्रमत्त) मनुष्य तो रूक्ष (रूखा-सूखा) पान-भोजन का सेवन करता है और ऐसे रूक्ष पान-भोजन का उपभोग करके वह वमन नहीं करता। उस रूक्ष पान-भोजन (के सेवन) से उसकी हड्डियाँ तथा हड्डियों की मज्जा प्रतनु (पतली–अगाढ़) होती है और उसका मांस और रक्त गाढ़ा (घन) हो जाता है। उस पान-भोजन के जो यथाबादर (यथोचित स्थूल) पुद्गल होते हैं, उनका परिणमन उसउस रूप में होता है। यथा-उच्चार (मल), प्रस्रवण (मूत्र), यावत् रक्त रूप में (उनका परिणमन हो जाता है।) अतः इस कारण से अमायी मनुष्य, विकुर्वणा नहीं करता; (मायी मनुष्य ही करता है।) १. 'जाव' शब्द सूचक पाठ इस प्रकार है—'खेलत्ताए, सिंघाणत्ताए, वंतत्ताए, पित्तताए, पूअत्ताए ।'