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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र करेत्तए, विसमं वा समं करेत्तए ?
गोयमा! णो इणठे समठे।
[१७ प्र.] भगवन् ! भावितात्मा अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना राजगृह नगर में जितने भी (पशु पुरुषादि) रूप हैं, उतने रूपों की विकुर्वणा करके तथा वैभारपर्वत में प्रवेश करके क्या समपर्वत को विषम कर सकता है ? अथवा विषमपर्वत को सम कर सकता है ?
[१७ उ.] हे गौतम! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। (अर्थात् बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना भावितात्मा अनगार वैसा नहीं कर सकता।)
१८. एवं चेव बितिओ वि आलावगो; णवरं परियातित्ता पभू ।
[१८] इसी तरह दूसरा (इससे विपरीत) आलापक भी कहना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि वह (भावितात्मा अनगार) बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके पूर्वोक्त प्रकार से (रूपों की विकुर्वणा आदि) करने में समर्थ है।
विवेचन भावितात्मा अनगार द्वारा अशक्य एवं शक्य विकुर्वणा शक्ति प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. १५ से १८ तक) द्वारा शास्त्रकार ने भावितात्मा अनगार की विक्रियाशक्ति के चमत्कार के सम्बन्ध में निषेध-विधिपूर्वक दो तथ्यों का प्रतिपादन किया है। वह क्रमशः इस प्रकार है
(१) वह बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना वैभारगिरि का उल्लंघन-प्रलंघन करने में समर्थ नहीं है।
(२) वह बाह्य पुद्गलों (औदारिक शरीर से भिन्न वैक्रिय पुद्गलों) को ग्रहण करके वैभारगिरि (राजगृहस्थित क्रीड़ापर्वत) का (वैक्रिय प्रयोग से) उल्लंघन-प्रलंघन कर सकता है।
(३) वह बाह्यपुदग्लों (वैक्रिय-पुद्गलों) को ग्रहण किये बिना राजगृह स्थित जितने भी पशुपुरुषादि रूप हैं, उनकी विकुर्वणा करके वैभारगिरि में प्रविष्ट होकर उसे, सम को विषम या विषम को सम नहीं कर सकता।
(४) बाह्यपुद्गलों को ग्रहण करके वह वैसा करने में समर्थ है।
बाह्यपुद्गलों का ग्रहण आवश्यक क्यों?—निष्कर्ष यह है कि वैक्रिय—(बाह्य) पुद्गलों के ग्रहण किये बिना वैक्रिय शरीर की रचना हो नहीं सकती और पर्वत का उल्लंघन करने वाला मनुष्य ऐसे विशाल एवं पर्वतातिकामी वैक्रियशरीरी के बिना पर्वत को लांघ नहीं सकता और वैक्रियशरीर बाहर के वैक्रिय पुद्गलों को ग्रहण किये बिना बन नहीं सकता। इसलिए कहा गया है कि बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके ही वैभारपर्वतोल्लंघन, विविधरूपों की विकुर्वणा, तथा वैक्रिय करके पर्वत में प्रविष्ट होकर समपर्वत को विषम और विषम को सम करने में वह समर्थ हो सकता है।
१.
वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. १, पृ. १६२ भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १८९