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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र सयक्कडं (शतक्रतु)-सौ क्रतुओं-अभिग्रहरूप सौ प्रतिमाओं अथवा श्रावक की पंचमप्रतिमारूप सौ प्रतिमाओं (क्रतुओं) का कार्तिक सेठ के भव में धारण करने वाला। सहस्सक्खं (सहस्राक्ष) हजार नेत्रों वाला इन्द्र के ५०० मंत्री होते हैं, उनके १००० नेत्र इन्द्र के कार्य में प्रयक्त होते हैं. इस अपेक्षा से सहस्राक्ष कहते हैं। वज्जपाणिं (वज्रपाणि)-इन्द्र के हाथ में वज्र नामक विशिष्ट शस्त्र होता है, इसलिए वज्रपाणि। पुरंदरं (पुरन्दर)=असुरादि के पुरों-नगरों का विदारक-नाशकार
कठिन शब्दों की व्याख्या-वीससाए स्वाभाविक रूप से। आभोइए उपयोग लगाकर देखा।दुरंतपंतलक्खणे दुष्परिणाम वाले अमनोज्ञ लक्षणों वाला।हीणपुण्णचाउद्दसे-हीनपुण्या-अपूर्णा (टूटती-रिक्ता) चतुर्दशी का जन्मा हुआ। अप्पुस्सुए-उत्सुकता-चिन्ता से रहित-लापरवाह । महाबोंदि-महान् शरीर को।अच्चासादेत्तए अत्यन्त आशातना-श्रीविहीन करने के लिए। 'पायदद्दरगं करेइ-भूमि पर पैर पछाड़ता है। उच्छोलेति-अगले भाग में लात मारता है अथवा उछलता है। पच्छोलेति-पिछले भाग में लात मारता है, या पछाड़ खाता है। रयुग्घायं करेमाणे धूल को उछालता बरसाता हुआ। वेहासं-आकाश को। वियड्ढमाणे-घुमाता हुआ। विउब्भावेमाणे चमकाता हुआ। परामुसइ-स्पर्श किया—उठाया। झत्ति वेगेणं-शीघ्रता से झटपट, वेग से। केसग्गे वीइत्था केशों के आगे का भाग हवा से हिलने लगा। फेंके हुए पुद्गल को पकड़ने की देवशक्ति और गमन-सामर्थ्य में अन्तर
३३. भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति०, २ एवं वदासि देवे णं भंते! महिड्डीए महज्जुतीए जाव महाणुभागे पुव्वामेव पोग्गलं खिवित्ता पभू तमेव अणुपरियट्टित्ताणं गिण्हित्तए ?
३३.[१] हंता, पभू।
[३३-१ प्र.] 'हे भगवन् !' यों कह कर भगवान् गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार करके इस प्रकार कहा (पूछा)-भगवन्! महाऋद्धिसम्पन्न, महाद्युतियुक्त यावत् महाप्रभावशाली देव क्या पहले पुद्गल फेंक कर, फिर उसके पीछे जा कर उसे पकड़ लेने में समर्थ है ?'
[३३-१ उ.] हाँ, गौतम! वह (ऐसा करने में) समर्थ है। [२] से केणठेणं भंते! जाव गिण्हित्तए ?
गोयमा! पोग्गले णं खित्ते समाणे पुव्वामेव सिग्घगती भवित्ता ततो पच्छा मंदगती भवति, देवे णं महिड्डीए पुव्वि पि य पच्छा वि सीहे सीहगती चव, तुरिते तुरितगती चेव। से तेणटेणं जाव पभूगेण्हित्तए।
[३३-२ प्र.] भगवन् ! किस कारण से देव, पहले फेंके हुए पुद्गल को, उसका पीछा करके यावत् ग्रहण करने में समर्थ है ? २. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १७४ ३. वही, पत्रांक १७४, १७५