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________________ ३०४] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [३-१ उ.] हे गौतम! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। (अर्थात् —असुरकुमार देव रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे निवास नहीं करते।) [२] एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए, सोहम्मस्स कप्पस्स अहे जाव अस्थि णं भंते! ईसिपब्भाराए पुढवीए अहे असुरकुमारा देवा परिवसंति ? णो इणठे समठे। [३-२ प्र.] इसी प्रकार यावत् सप्तम (तमस्तमःप्रभा) पृथ्वी के नीचे भी वे (असुरकुमार देव) नहीं रहते; और न सौधर्मकल्प-देवलोक के नीचे यावत् अन्य सभी कल्पों (देवलोकों) के नीचे वे रहते हैं। (तब फिर प्रश्न होता है-) भगवन् ! क्या वे असुरकुमार देव ईषत्प्राग्भारा (सिद्धशिला) पृथ्वी के नीचे रहते हैं ? [३-२ उ.] (हे गौतम!) यह अर्थ (बात) भी समर्थ (शक्य) नहीं। (अर्थात् ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी के नीचे भी असुरकुमार देव नहीं रहते।) ४. से कहिं खाई णं भंते! असुरकुमारा देवा परिवसंति ? गोयमा! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसतसहस्सबाहल्लाए, एवं' असुरकुमारदेववत्तव्वया जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति। [४ प्र.] भगवन् ! तब ऐसा वह कौन-सा स्थान है, जहाँ असुरकुमार देव निवास करते हैं ? [४ उ.] गौतम! एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बीच में (असुरकुमार देव रहते हैं।) यहाँ असुरकुमारसम्बन्धी समस्त वक्तव्यता कहनी चाहिए; यावत् वे (वहाँ) दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए विचरण (आनन्द से जीवनयापन) करते हैं। विवेचन-असुरकुमार देवों का अवासस्थान प्रस्तुत सूत्रद्वय में असुरकुमार देवों के आवासस्थान के विषय में पूछा गया है और अन्त में भगवान् रत्नप्रभापृथ्वी के अन्तराल में उनके आवासस्थान होने का प्रतिपादन करते हैं। असुरकुमारदेवों का यथार्थ आवासस्थान-प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार रत्नप्रभा का पृथ्वीपिण्ड एक लाख अससे हजार योजन है। उसमें से ऊपर एक हजार योजन छोड़कर ओर नीचे के एक हजार योजन छोड़ कर, बीच में एक लाख अठहत्तर हजार योजन के भाग में असुरकुमार देवों के ३४ लाख भवनावास हैं। असुरकुमार देवों के अधो-तिर्यक्-ऊर्ध्वगमन से सम्बन्धित प्ररूपणा ५. अत्थि णं भंते! असुरकुमाराणं देवाणं अहे गतिविसए प.? हंता, अत्थि। असुरकुमार देव सम्बन्धी वक्तव्यता इस प्रकार समझनी चाहिए "उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता, हेद्राच एगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे अट्ठहत्ततरे जोयणसयसहस्से, एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं चोसट्टि भवणावाससयसहस्सा भवंतीति अक्खायं" इसका भावार्थ विवेचन में किया जा चुका है। -सं. (क) प्रज्ञापनासूत्र (आ. स.), पृ.८९-९१ । (ख) श्रीमद्भगवतीसूत्रम् (टीकानुवाद) (पं. बेचरदासजी) खण्ड २ पृ. ४९
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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