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सिद्धान्त-विरुद्ध मत २१०, सिद्धान्तानुकल मत २१०, उदकगर्भ आदि की कालस्थिति का विचार २११, उदकगर्भ : कालस्थिति और पहचान २१२, मायभवस्थ २१२, योनिभूत रूप में बीज की काल स्थिति २१२, मैथुन प्रत्ययिक संतानोत्पत्ति संख्या एवं मैथुन सेवन से असंयम का निरूपण २१२, एक जीव शत पृथकत्व जीवों का पुत्र कैसे? २१४, एक जीव के, एक ही भव में शत-सहस्र पृथक्त्व पुत्र कैसे? २१४, मैथुन सेवन से असंयम २१४, तुंगिका नगरी के श्रमणोपासकों का जवीन २१४, कठिन शब्दों के दूसरे अर्थ २१६, तुंगिका पार्खापत्यीय स्थविरों का पदार्पण २१७, कुत्रिकापण का अर्थ २१७, तुंगिका-निवासी श्रमणोपासक पाश्र्वापत्यीय स्थविरों की सेवा में २१७, 'कय-कोउय-मंगल-पायच्छिता' के दो विशेष अर्थ २२०, तुंगिक के श्रमणोपासकों के प्रश्न और स्थविरों के उत्तर २२०, देवत्व किसका पुल २२२, 'व्यवदान' का अर्थ २२२, राजगृह में गौतम स्वामी का भिक्षाचर्यार्थ पर्यटन २२३, कुछ विशिष्ट शब्दों की व्याख्या २२४, स्थविरों की उत्तरप्रदानसमर्थता आदि के विषय में गौतम की जिज्ञासा और भगवान् द्वारा समाधान २२४ 'समिया' आदि पदों की व्याख्या २२७, श्रमण-माहन पर्युपासना का अनन्तर और परम्पर फल २२७, श्रमण २२९, माहन २२९, श्रमण-माहन-पर्युपासना से अन्त में सिद्धि २२९, राजगृह का गर्मजल का स्रोत : वैसा है या ऐसा? २२९ ।
छठा उद्देशक-भाषा
____ भाषा का स्वरूप और उससे संबंधित वर्णन २३२, भाषा सम्बन्धी विश्लेषण २३२ सप्तम उद्देशक-देव ।
देवों के प्रकार, स्थान, उपपात, संस्थान आदि का वर्णन २३४, देवों के स्थान आदि २३४, वैमानिक प्रतिष्ठान आदि का वर्णन २३५ । अष्टम उद्देशक-सभा
असुरकुमार राजा चमरेन्द्र की सुधर्मा सभा आदि का वर्णन २३६, उत्पातपर्वत आदि शब्दों के विशेषार्थ २३८, पद्मवरवेदिका का वर्णन २३८, वनखण्ड का वर्णन २३८, उत्पातपर्वत का उपरितल २३८, प्रासादावतंसक २३८, चमरेन्द्र का सिंहासन २३८, विजयदेव सभावत् चमरेन्द्र सभावर्णन २३९ । नवम उद्देशक-द्वीप (समयक्षेत्र)
समयक्षेत्र संबंधी प्ररूप्णा २४०, समय क्षेत्र : स्वरूप और विश्लेषण २४०, समय क्षेत्र का स्वरूप २४० दशम उद्देशक-अस्तिकाय
अस्तिकाय : स्वरूप, प्रकार विश्लेषण २४२, 'अस्तिकाय' का निर्वचन २४४, पाँचों का यह क्रम क्यों २४४, पंचास्तिकाय का स्वरूप विश्लेषण २४४, धम्प्रस्तिकायादि के स्वरूप का निश्चय २४४, निश्चय नय का मंतव्य २४६, उत्थानादि युक्त जीव द्वारा आत्मभाव से जीव भाव का प्रकटीकरण २४७, उत्थानादि विशेषण संसारी जीव के हैं २४७, आत्मभाव का अर्थ २४७, पर्यव-पर्याय २४७, आकाशास्तिकाय के भेद-प्रभेद एवं स्वरूप का निर्णय २४८, देश-प्रदेश २४८, जीव-अजीव के देश-प्रदेशों का पृथक् कथन क्यों? २४९, स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश, परमाणु पुद्गल २४९, अरूपी के दस भेद के बदले पांच भेद ही क्यों? २४९, अद्धासमय २४९, अलोकाकाश २४९, लोकाकाश २४९, धर्मास्तिकाय आदि का प्रमाण २५०, धर्मास्तिकाय आदि की स्पर्शना २५०, तीनों लोकों द्वारा धर्मास्तिकाय का स्पर्श कितना और क्यों? २५१।
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