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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उसके समस्त नाड़ियों का जाल बाहर दिखाई देने लगा।
४०. तए णं तस्स तामलिस्स बालतवस्सिस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अणिच्चजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए जाव समुप्पजित्था एवं खलु अहं इमेणं ओरालेणं विपुलेणं जाव उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं महाणुभागेणं तवोकम्मेणं सुक्के लुक्खे जाव धमणिसंतते जाते, तं अत्थि जा मे उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे तावता मे सेयं कल्लं जाव जलंते तामलित्तीए नगरीए दिट्ठाभट्टे य पासंडत्थे य गिहत्थे य पुव्वसंगतिए य परियायसंगतिए य आपुच्छित्ता तामलित्तीए नगरीए मज्झंमज्झेणं निग्गछित्ता पाउग्गं कुण्डियमादीयं उवकरणं दारुमयं च पडिग्गहयं एगंते एडित्ता तामलित्तीए नगरीए उत्तरपुरस्थिमे दिसभाए णियत्तणियमंडलं अलिहित्ता संलेहणाझूसणाझूसियस्स भत्त-पाणपडियाइक्खियस्स पाओवगयस्स कालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ। एवं संपेहेत्ता कल्लं जाव जलंते जाव आपुच्छइ, २ तामलित्तीए एगंते एडेइ जाव भत्त-पाणपडियाइक्खिए पाओवगमणं निवन्ने।'
[४०] तदनन्तर किसी एक दिन पूर्वरात्रि व्यतीत होने के बाद अपररात्रिकाल के समय अनित्य जागरिका अर्थात् संसार, शरीर आदि की क्षणभंगुरता का विचार करते हुए उस बालतपस्वी तामली को इस प्रकार का आध्यात्मिक चिन्तन यावत् मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ कि 'मैं इस उदार, विपुल यावत् उदग्र, उदात्त, उत्तम और महाप्रभावशाली तपःकर्म करने से शुष्क और रूक्ष हो गया हूँ, यावत् मेरा शरीर इतना कृश हो गया है कि नाड़ियों का जाल बाहर दिखाई देने लग गया है। इसलिए जब तक मुझ में उत्थान, कर्म, बल वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम है, तब तक मेरे लिए (यही) श्रेयस्कर है कि कल प्रात:काल यावत् जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर मैं ताम्रलिप्ती नगरी में जाऊँ। वहाँ जो दृष्टभाषित (जिनको पहले गृहस्थावस्था में देखा है, जिनके साथ भाषण किया है)' व्यक्ति हैं, जो पाषण्ड (व्रतों में) स्थित हैं, या जो गृहस्थ हैं, जो पूर्वपरिचित (गृहस्थावस्था के परिचित) हैं, या जो पश्चात्परिचित (तापसजीवन में परिचय में आए हुए) हैं, तथा जो समकालीन प्रव्रज्या-(दीक्षा) पर्याय से युक्त पुरुष हैं, उनसे पूछकर (विचार-विनिमय करके), ताम्रलिप्ती नगरी के बीचोंबीच से निकलकर पादुका (खड़ाऊं), कुण्डी आदि उपकरणों तथा काष्ठ-पात्र को एकान्त में रखकर, ताम्रलिप्ती नगरी के उत्तरपूर्व दिशा भाग (ईशानकोण) में निवर्तनिक (एक परिमित क्षेत्र विशेष, अथवा निजतनुप्रमाण स्थान) मण्डल का आलेखन (निरीक्षण, सम्मान, या रेखा खींच कर क्षेत्रमर्यादा) करके, संल्लेखना तप से आत्मा को सेवित कर आहार-पानी का सर्वथा त्याग (यावज्जीव अनशन) करके पादपोपगमन संथारा करूं और मृत्यु की आकांक्षा नहीं करता हुआ (शान्तचित्त से समभाव में) विचरण करूं; मेरे लिए यही उचित है।' यों विचार करके प्रभातकाल होते ही यावत् जाज्वल्यमान सूर्योदय होने पर यावत् (पूर्वोक्त–पूर्वचिन्तित संकल्पानुसार सबसे यथायोग्य) पूछा । (विचार विनिमय करके) उस (तामली तापस) ने (ताम्रलिप्ती नगरी के बीचों-बीच से निकलकर अपने उपकरण) एकान्त स्थान में छोड़ दिये। फिर यावत् आहार-पानी का सर्वथा प्रत्याख्यान (त्याग) किया और पादपोपगमन नामक अनशन
१. जात्र पद से 'सस्सिरीएणं पयत्तेणं पग्गहिएणं, कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगलेणं' इस पाठ का ग्रहण करना चाहिए।