________________
२८२]
[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र काल के समय कुटुम्ब जागरिका जागते हुए उस मौर्यपुत्र तामली गाथापति (गृहस्थ) को इस प्रकार का यह अध्यवसाय यावत् मन में संकल्प उत्पन्न हुआ कि "मेरे द्वारा पूर्वकृत, पुरातन (दानादि रूप में) सम्यक् आचरित, (तप आदि में) सुपराक्रमयुक्त, शुभ और कल्याणरूप कृतकर्मों का कल्याणफलरूप प्रभाव अभी तक तो विद्यमान है; जिसके कारण मैं हिरण्य (चांदी) से बढ़ रहा हूँ, सुवर्ण (सोने) से बढ़ रहा हूँ, धन से बढ़ रहा हूं, धान्य से बढ़ रहा हूँ, पुत्रों से बढ़ रहा हूँ, पशुओं से बढ़ रहा हूं, तथा विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, चन्द्रकान्त वगैरह शैलज मणिरूप पत्थर, प्रवाल (मूंगा) रक्तरत्न तथा माणिक्यरूप सारभूत धन से अधिकाधिक बढ़ रहा हूँ; (अर्थात् —मेरे घर में पूर्वकृत पुण्यप्रभाव से पूर्वोक्तरूप में सारभूत धनवैभव आदि बढ़ रहे है;) तो क्या मैं पूर्वकृत, पुरातन, (दानादिरूप में) समाचरित यावत् पूर्वकृतकमों का (शुभकर्मों का फल भोगने से उनका' एकान्तरूप से क्षय हो रहा है, इसे अपने सामने देखता रहूँ—इस (क्षय-नाश) की उपेक्षा करता रहूँ ? (अर्थात्-मुझे इतना सुखसाधनों का लाभ है, इतना ही बस मान क्या भविष्य-कालीन लाभ के प्रति उदासीन बना रहूँ ? यह मेरे लिए ठीक नहीं है।) अतः जब तक मैं चांदी-सोने यावत् माणिक्य आदि सारभूत पदार्थों के रूप में सुखसामग्री द्वारा दिनानुदिन अतीव-अतीव अभिवृद्धि पा रहा है और जब तक मेरे मित्र, ज्ञातिजन. स्वगोत्रीय कुटुम्बीजन, मातृपक्षीय (ननिहाल के) या श्वसुरपक्षी सम्बन्धी एवं परिजन (दास-दासी आदि) मेरा आदर करते हैं, मुझे स्वामी रूप में मानते हैं, मेरा सत्कार-सम्मान करते हैं, मुझे कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप और चैतन्य (संज्ञानवान् समझदार अनुभवी) रूप मानकर विनयपूर्वक मेरी पर्युपासना-सेवा करते हैं; तब तक (मुझे अपना कल्याण कर लेना चाहिए।) यही मेरे लिए श्रेयस्कर है। अतः रात्रि के व्यतीत होने पर प्रभात का प्रादुर्भाव होते ही (अर्थात् प्रात:काल का प्रकाश होने पर) यावत् जाज्वल्यमान सूर्य के उदय होने पर मैं स्वयं अपने हाथ से काष्ठपात्र बनाऊँ और पर्याप्त अशन, पान, खादिम और स्वादिम रूप चारों प्रकार का आहार तैयार करा कर, अपने मित्र, ज्ञातिजन, स्वजनसम्बन्धी तथा दास-दासी आदि परिजनों को आमन्त्रित करके उन्हें सम्मानपूर्वक अशनादि चारों प्रकार के आहार का भोजन कराऊँ; फिर वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, माला और आभूषण आदि द्वारा उनका सत्कार-सम्मान करके उन्हीं मित्र, ज्ञातिजन, स्वजन-सम्बन्धी और परिजनों के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में स्थापित करके (उसे कुटुम्ब का सारा दायित्व सौंप कर), उन मित्र-ज्ञातिजन-स्वजनपरिजनादि तथा अपने ज्येष्ठपुत्र से पूछकर, मैं स्वयमेव काष्ठपात्र लेकर एवं मुण्डित होकर 'प्रणामा' नाम की प्रव्रज्या अंगीकार करूं और प्रव्रजित होते ही मैं इस प्रकार का अभिग्रह (संकल्प-प्रतिज्ञा) धारण करूं कि मैं जीवनभर निरन्तर छट्ठ-छट्ठ (बेले-बेले) तपश्चरण करूंगा और सूर्य के सम्मुख दोनों भुजाएं ऊंची करके आतापना भूमि में आतापना लेता (कठोर ताप सहता) हुआ रहूँगा और छट्ठ (बेले) के पारणे के दिन आतापनाभूमि से नीचे उतर कर स्वयं काष्ठपात्र हाथ में लेकर ताम्रलिप्ती नगरी के ऊंच, नीच और मध्यम कुलों के गृहसमुदाय में भिक्षाचरी के लिए पर्यटन करके भिक्षाविधि द्वारा शुद्ध ओदन (अर्थात्-केवल भात) लाऊंगा और उसे २१ बार धोकर खाऊंगा।" इस प्रकार तामली गृहपति ने शुभ विचार किया।
इस प्रकार का विचार करके रात्रि व्यतीत होते ही प्रभात का प्रादुर्भाव होने पर यावत् तेज से