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________________ तृतीय शतक : उद्देशक-१] [२८१ किया), जिस (पुण्य-प्रताप) से देवेन्द्र देवराज ईशानेन्द्र ने वह दिव्य देवऋद्धि यावत् उपलब्ध की है, प्राप्त की है और अभिमुख की है ? [३५उ.] हे गौतम! उस काल उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में भारतवर्ष में ताम्रलिप्ती नाम की नगरी थी। उसका वर्णन समझ लेना चाहिए। उस ताम्रलिप्ती नगरी में तामली नाम का मौर्यपुत्र (मार्यवंश में उत्पन्न) गृहपति (गृहस्थ) रहता था। वह धनाढ्य था, दीप्तिमान (तेजस्वी) था, और बहुत-से मनुष्यों द्वारा अपरभवनीय (नहीं दबने वाला=दबंग) था। ३६. तए णं तस्स मोरियपुत्तस्स तामलिस्स गाहावतिस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकाल-समयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजित्था-"अत्थि ता मे पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणे फलवित्तिविसेसे जेणाहं हिरण्णेणं वड्ढामि, सुवण्णेणं वड्ढामि, धणेणं वड्ढामि, धन्नेणं वड्ढामि, पुत्तेहिं वड्ढामि, पसूहिं वड्ढामि, विउलधण-कणगरयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिल-प्पवाल-रत्तरयण-संतसारसावतेज्जेणं अतीव २ अभिवड्ढामि, तं किं णं अहं पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं जाव कडाणं कम्माणं एगंतसोक्खयं उवेहेमाणे विहारामि ?, तं जाव च णं मे मित्त-नाति-नियग-संबंधिपरियणो आढाति परियाणइ सक्कारेइ सम्माणेइ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासइ तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभाताए रयणीए जाव जलंते सयमेव दारुमयं पडिग्गहयं करेत्ता विउलं असण-पाण-खातिम-सातिमं उवक्खडावेत्ता मित्त-नाति-नियग-संबंधिपरियणं आमंतेत्ता तं मित्त-नाइ-नियग-संबंधिपरयणं विउलेणं असण-पाण-खातिम-सातिमेणं वत्थ-गंध-मल्ला-ऽलंकारेण य सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्त-नाइ-नियग-संबंधिपरियणस्स पुरतो जेठं पुत्तं कुटुंबे ठावेत्ता तं मित्त-नाति-णियग-संबंधिपरियणं जेट्टपुत्तं च आपुच्छित्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय मुंडे भवित्ता पाणामाए पव्वज्जाए पव्वइत्तए। पव्वइत्ते वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि—'कप्पइ मे जावज्जीवाए छठेंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिब्भिय पगिब्भिय सूराभिमुहस्स आतावणभूमीए आयावेमाणस्स विहरित्तए, छट्ठस्स वि य णं पारणयंसि आयावणभूमीतो पच्चोरुभित्ता सममेव दारुमय पडिग्गहयं गहाय तामलित्तीए नगरीए उच्च-नीय-मज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्ता सुद्धोदणं पडिग्गाहेत्ता, तं तिसत्तखुत्तो उदएणं पक्खालेत्ता, तओ पच्छा आहारं आहारित्तए' त्ति कटु" एवं संपेहेइ, २ कल्लं पाउप्पभायाए जाव जलंते सयमेव दारुमयं पडिग्गहयं करेइ, २ विउलं असण-पाण-खाइम-साइमं उवक्खडावेइ, २ तओ पच्छा पहाए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवर परिहिए अप्पमहग्घाऽऽभरणालंकियसरीरे भोयणवेलाए भोयण-मंडवंसि सुहासणवरगते। तए णं मित्त-नाइनियग-संबंधिपरिजणेणं सद्धिं तं विउलं असण-पाण-खातिम-साइमं आसादेमाणे वीसादेमाणे परिभाएमाणे परिभुंजेमाणे विहरइ। [३६] तत्पश्चात् किसी एक दिन पूर्वरात्रि व्यतीत होने पर अपर (पश्चिम पिछली) रात्रि
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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