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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र महावीर को वन्दन-नमस्कार करके यावत् इस प्रकार कहा—(पूछा-)"भगवन्! यदि देवेन्द्र देवराज शक्र इतनी महाऋद्धि वाला है, यावत् इतनी विकुर्वणा करने में समर्थ है, तो हे भगवन्! देवेन्द्र देवराज ईशान कितनी महाऋद्धि वाला है यावत् कितनी विकुर्वणा करने की शक्ति वाला है?"
[१९ उ.] (गौतम! जैसा शक्रेन्द्र के विषय में कहा था,) वैसा ही सारा वर्णन ईशानेन्द्र के विषय में जानना चाहिए। विशेषता यह है कि वह (अपने वैक्रियकृत रूपों से) सम्पूर्ण दो जम्बूद्वीप से कुछ अधिक स्थल को भर देता है। शेष सारा वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए।
२०.जतिणं भंते! ईसाणे देविंदे देवराया एमहिड्ढीए जाव एवतियं च णं पभूविउव्वित्तए, एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुरुदत्तपुत्ते नामं पगतिभद्दए जाव विणीए अट्ठमंअट्ठमेणं अणिक्खित्तेणं, पारणए आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिब्भिय २ सूराभिमुहे आयावणभूमीए आतावेमाणे बहुपडिपुण्णे छम्मासे सामण्णपरियागं पाउिणत्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झोसित्ता तीसं भत्ताइं अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा ईसाणे कप्पे सयंसि विमाणंसि जा चेव तीसए वत्तव्वया स च्चेव अपरिसेसा कुरुदत्तपुत्ते वि।
नवरं सातिरेगे दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अवसेसं तं चेव।
[२० प्र.] भगवन्! यदि देवेन्द्र देवराज ईशानेन्द्र इतनी बड़ी ऋद्धि से युक्त है यावत् वह इतनी विकुर्वणाशक्ति रखता है, तो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत, तथा निरन्तर अट्ठम (तेले-तेले) की तपस्या
और पारणे में आयम्बिल, ऐसी कठोर तपश्चर्या से आत्मा को भावित करता हुआ, दोनों हाथ ऊंचे रखकर सूर्य की ओर मुख करके आतापना-भूमि में आतापना लेने वाला (सख्त धूप को सहने वाला) आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी (शिष्य) कुरुदत्तपुत्र अनगार, पूरे छह महीने तक श्रामण्यपर्याय का पालन करके, अर्द्धमासिक (१५ दिन की) संलेखना से अपनी आत्मा को संसेवित (संयुक्त) करके, तीस भक्त (३० टंक) अनशन (संथारे) का छेदन (पालन) करके, आलोचना एवं प्रतिक्रमण करके, समाधि प्राप्त करके (समभावसमाधिपूर्वक) काल (मरण) का अवसर आने पर काल करके, ईशानकल्प में, अपने विमान में, ईशानेन्द्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हुआ है, इत्यादि जो वक्तव्यता, तिष्यकदेव के सम्बन्ध में पहले कही है, वही समग्र वक्तव्यता कुरुदत्तपुत्र देव के विषय में भी कहनी चाहिए। (अतः प्रश्न यह है कि वह सामानिक देवरूप में उत्पन्न कुरुदत्तपुत्रदेव कितनी महाऋद्धि वाला है, यावत् कितनी विकुर्वणा करने में समर्थ है ?)
[२० उ.] (हे गौतम! इस सम्बन्ध में सब वक्तव्य पूर्ववत् जानना चाहिए।) विशेषता यह है कि कुरुदत्तपुत्रदेव की (अपनी वैक्रियकृत रूपों से) सम्पूर्ण दो जम्बूद्वीपों से कुछ अधिक स्थल को भरने की विकुर्वणाशक्ति है। शेष समस्त वर्णन उसी तरह ही समझना चाहिए।
२१. एवं सामाणिय-तायत्तीस-लोगपाल-अग्गमहिसीणं जाव एस णं गोयमा! ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो एवं एगमेगाए अग्गमहिसीए देवीए अयमेयारूवे विसए विसयमेत्ते वुइए, नो चेव णं संपत्तीए विकुव्विसु वा विकुव्वंति वा विकुव्विस्संति वा।