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तृतीय शतक : उद्देशक-१]
[२७३ ऐरावतवाहन, सुरेन्द्र....आदि। शक्रेन्द्र के आवासस्थान, विमान, विमानों का आकार-वर्ण-गन्धादि, उसको प्राप्त शरीर, श्वासोच्छ्वास, आहार, लेश्या, ज्ञान, अज्ञान, दर्शन-कुदर्शन, उपयोग, वेदना, कषाय, समुद्घात, सुख, समृद्धि, वैक्रियशक्ति आदि का समस्त वर्णन प्रज्ञापनासूत्र में किया गया है।
तिष्यक अनगार की सामानिक देवरूप में उत्पत्ति-प्रक्रिया शक्रेन्द्र की ऋद्धि आदि के विषय में प्रश्नोत्तर के पश्चात् शक्रेन्द्र के सामानिक देव के रूप में उत्पन्न हुए अपने पूर्वपरिचित भगवत् शिष्य तिष्यक अनगार के समग्र चरितानुवादपूर्वक प्रश्न करते हैं-द्वितीय गौतम श्री अग्निभूति अनगार! तिष्यक अनगार का मनुष्यलोक से देहावसान होने पर देवलोक में देवशरीर की रचना की प्रक्रिया का वर्णन यहाँ शास्त्रकार करते हैं। कर्मबद्ध आत्मा (जीव) के तथारूप पुद्गलों से आहार, शरीर, इन्द्रिय आदि रूप शरीर बनता है। पर्याप्तियां छह होते हुए भी यहाँ पांच पर्याप्तियों का उल्लेख बहुश्रुत पुरुषों के द्वारा भाषापर्याप्ति और मनःपर्याप्ति को एक मान लेने से किया गया है।
'लद्धे पत्ते अभिसमन्नगते' का विशेषार्थ-लद्धे-दूसरे (पूर्व) जन्म में इसका उपार्जन किया था, इस कारण लब्ध (मिला, लाभ प्राप्त) हुआ; पत्ते-देवभव की अपेक्षा से प्राप्त हुआ है, इसलिए 'पत्ते' शब्द प्रयुक्त है; अभिसमन्नगते—प्राप्त किये हुए भोगादि साधनों के उपयोग (अनुभव) की अपेक्षा से अभिमुख लाया हुआ है।
_ 'जहेव चमरस्स' का आशय—इस पंक्ति से यह सूचित किया गया है कि लोकपाल और अग्रमहिषियों की विकुर्वणाशक्ति 'तिरछे संख्यात द्वीप-समुद्रों जितने स्थल को भरने तक की' कहनी चाहिए।
कठिन शब्दों के अर्थ -अणिक्खित्तेणं-निरन्तर (अनिक्षिप्त)। झूसित्ता-सेवन करके। जारिसिया-जैसी, तारिसिया-वैसी। ईशानेन्द्र, कुरुदत्तपुत्रदेव तथा सनत्कुमारेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक के इन्द्रों एवं उनके सामानिकादि देववर्ग की ऋद्धि-विकुर्वणाशक्ति आदि का प्ररूपण
१९. भंते!'त्ति भगवंतच्चे गोयमे वाउभूती अणगारे भगवं जाव एवं वदासी–जति णं भंते! सक्के देविंदे देवराया एमहिड्ढीए जाव एवइयं च णं पभू विउव्वित्तए, ईसाणे णं भंते! देविंदे देवराया केमहिड्ढीए ? ।
एवं तहेव, नवरं साहिए दो केवलकप्पे जंबुद्दीवे दीवे, अवसेसं तहेव। [१९ प्र.] 'भगवन्!' यों संबोधन कर तृतीय गौतम भगवान् वायुभूति अनगार ने श्रमण भगवान्
१. (क) प्रज्ञापनासूत्र (उ.४ क. आ., पृ.१२०-१)-'सक्के इत्थ देविदे देवराया परिवसइ, वज्जपाणी पुरंदरे सयक्कड
सहस्सक्खे मघवं पागसासणे दाहिण (ड्ढ) लोगाहिवई बत्तीसविमाणावाससयसहस्साहिवई एरावणवाहणे
सुरिंदे....आहेवच्चं पोरेवच्चं कुव्वेमाणे जाव विहरई।' (ख) जीवाभिगमसूत्र क.अ.पृ. ९२६ २. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १५९
(ख) भगवतीसूत्र टीका-गुजराती अनुवाद (पं. बेचरदासजी), खण्ड २, पृ. १९ ३. भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक १५९ ४. भगवतीसूत्र हिन्दी विवेचनयुक्त (पं. घेवरचन्दजी), भाग २, पृ.५५७