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तृतीय शतक
प्राथमिक
व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र का यह तृतीय शतक है ।
इसमें मुख्यतया, तपस्या आदि क्रियाओं से होने वाली दिव्य उपलब्धियों का वर्णन है । इसके दस उद्देशक हैं ।
प्रथम उद्देशक में मोका नगरी में भगवान् के पदार्पण का उल्लेख करके उसमें उद्देशकप्रतिपादित विषयों के प्रश्नोत्तर का संकेत किया गया है । तदनन्तर अग्निभूत अनगार द्वारा पूछी गई चमरेन्द्र और उसके अधीनस्थ समस्त प्रमुख देव - देवियों की ऋद्धि, कान्ति, प्रभाव, बल,. यश, सुख और वैक्रियशक्ति का, फिर वायुभूति अनगार द्वारा पूछी गई बलीन्द्र एवं उसके अधीनस्थ समस्त प्रमुख देववर्ग की ऋद्धि आदि एवं वैक्रियशक्ति का, तत्पश्चात् पुनः अग्निभूति द्वारा पूछे गए नागकुमारराज धरणेन्द्र तथा अन्य भवनपतिदेवों के इन्द्रों, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क के इन्द्रों, शक्रेन्द्र, तिष्यक सामानिक देव तथा ईशानेन्द्र से अच्युतेन्द्र तक के वैमानिक इन्द्रों की ऋद्धि आदि एवं वैक्रियशक्ति की प्ररूपणा की गई है । तत्पश्चात् राजगृह में इन्द्रभूति गौतम गणधर द्वारा ईशानेन्द्र की दिव्य ऋद्धि वैक्रियशक्ति आदि के सम्बन्ध में पूछे जाने पर भगवान् द्वारा तामली बालतपस्वी का गृहस्थ जीवन तथा प्राणामा प्रवज्या ग्रहण से लेकर ईशानेन्द्र बनने तक विस्तृत वर्णन किया गया है। फिर तामली तापस द्वारा बलिचंचावासी असुरों द्वारा बलीन्द्र बनने के निदान को अस्वीकार करने से प्रकुपित होकर शव की विडम्बना करने पर ईशानेन्द्र के रूप में भू.पू. तामली का प्रकोप, उससे भयभीत होकर असुरों द्वारा क्षमायाचना आदि वृत्तान्त प्रस्तुत किया गया है । अन्त में, ईशानेन्द्र की स्थिति, मुक्ति तथा शक्रेन्द्र - ईशानेन्द्र की वैभवसम्बन्धी तुलना, सनत्कुमारेन्द्र की भवसिद्धिकता आदि का निरूपण किया गया है।
द्वितीय उद्देशक में असुरकुमार देवों के स्थान, उनके द्वारा ऊर्ध्व - अधो- तिर्यग्गमन - सामर्थ्य, तत्पश्चात् पूर्वभव में पूरण तापस द्वारा दानामा प्रव्रज्या से लेकर असुरराज - चमरेन्द्रत्व की प्राप्ति ऩक का समग्र वर्णन है। उसके बाद भगवदाश्रय लेकर चमरेन्द्र द्वारा शक्रेन्द्र को छेड़े जाने पर शक्रेन्द्रकृत वज्रपात से मुक्ति का वृतान्त प्रस्तुत है । तत्पश्चात् फैंकी हुई वस्तु को पकड़ने में तथा शक्रेन्द्र तथा चमरेन्द्र के ऊर्ध्व-अधः- तिर्यग्गमन-सामर्थ्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर हैं । अन्त में वज्रभयमुक्त चमरेन्द्र द्वारा भगवान् के प्रति कृतज्ञता, क्षमायाचना तथा नाट्यविधि-प्रदर्शन का और असुरकुमार देवों द्वारा सौधर्मकल्पगमन का कारणान्तर बताया गया है।
तृतीय उद्देशक में पांच क्रियाओं, उनके अवान्तर भेदों, सक्रिय अक्रिय जीवों की अन्तक्रिया के नास्तित्व-अस्तित्व के कारणों का वर्णन है, तथा प्रमत्त- अप्रमत्त संयम के सर्वकाल एवं लवणसमुद्रीय हानि - वृद्धि के कारण का प्ररूपण है।