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[व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र आर्यो ! (वास्तव में) पूर्व (रागभावयुक्त) तप से, पूर्व (सराग) संयम से, कर्मिता (कर्मक्षय न होने से या कर्मों के रहने) से, तथा संगिता (द्रव्यासक्ति) से, देवता देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। यह बात (अर्थ) सत्य है। इसलिए कही है, हमने अपना आत्मभाव (अपना अहंभाव या अपना अभिप्राय) बताने की दृष्टि से नहीं कही है।'
१८. तए णं ते समणोवासया थेरेहिं भगवंतेहिं इमाइं एयारूवाइं वागरणाइं वागरिया समाणा हट्टतुट्ठा थेरे भगवंते वंदंति नमसंति, २ पसिणइं पुच्छंति, २ अट्ठाइं उवादियंति, २ उठाए उठेति, २ थेरे भगवंते तिक्खुत्तो वंदंति णमंसंति, २ थेराणं भगवंताणं अंतियाओ पुष्फवतियाओ चेइयाओ पडिनिक्खमंति, २ जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसिं पडिगया।
[१८] तत्पश्चात् वे श्रमणोपासक, स्थविर भगवन्तों द्वारा (अपने प्रश्नों के कहे हुए इन और) ऐसे उत्तरों को सुनकर बड़े हर्षित एवं सन्तुष्ट हुए और स्थविर भगवन्तों को वन्दना नमस्कार करके अन्य प्रश्न भी पूछते हैं, प्रश्न पूछ कर फिर स्थविर भगवन्तों द्वारा दिये गये उत्तरों (अर्थों) को ग्रहण करते हैं। तत्पश्चात् वे वहाँ से उठते हैं और तीन बार वन्दना-नमस्कार करते हैं। फिर वे उन स्थविर भगवन्तों के पास से और उस पुष्पवतिक चैत्य से निकलकर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में वापस (अपनेअपने स्थान पर) लौट गए।
१९. तए णं ते थेरा अनया कयाइ तुंगियाओ पुप्फवतिचेइयाओ पडिनिग्गच्छंति, २ बहिया जणवयविहारं विहरंति।
[१९] इधर वे स्थविर भगवन्त भी किसी एक दिन तुंगिका नगरी के उस पुष्पवतिक चैत्य से निकले और बाहर (अन्य) जनपदों में विचरण करने लगे।
विवेचन तुंगिका के श्रमणोपासकों के प्रश्न और स्थविरों के उत्तर-प्रस्तुत पांच सूत्रों (१५ से १९ तक) में तुंगिका के श्रमणोपासकों द्वारा स्थविरों का धर्मोपदेश सुनकर उनसे सविनय पूछे गये प्रश्नों तथा उनके द्वारा विभिन्न अपेक्षाओं से दिये गये उत्तरों का निरूपण है।
देवत्व किसका फल?-संयम और तप का फल श्रमणोपासकों द्वारा पूछे जाने पर स्थविरें ने क्रमशः अनाश्रवत्व एवं व्यवदान बताया। इस पर श्रमणोपासकों ने पुनः प्रश्न उठाया संयम और तप का फल यदि संवर और व्यवदान निर्जरा है तो देवत्व की प्राप्ति कैसे होती है ? इस पर विभिन्न स्थविरों ने पूर्वतप, और पूर्वसंयम को देवत्व का कारण बताया। इसका आशय है—वीतरागदशा से पूर्व किया गया तप और संयम, ये दोनों (पूर्वतप और पूर्वसंयम) सरागदशा में सेवित होने से देवत्व के कारण हैं। जबकि पश्चिम तप और पश्चिम संयम रागरहित स्थिति में होते हैं। उनका फल अनाश्रवत्व और व्यवदान है। वास्तव में देवत्व के साक्षात्कारण कर्म और संग (रागभाव) हैं। शुभ कर्मों का पुंज बढ़ जाता है, वह क्षीण नहीं किया जाता, साथ ही संयम आदि से युक्त होते हुए भी व्यक्ति अगर समभाव (संग या आसक्ति) से युक्त है तो वह देवत्व का कारण बनता है।
व्यवदान–'दाप्' धातु काटने और 'दैप्' शोधन करने अर्थ है, इसलिए व्यवदान का अर्थ—कर्मों