SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-५] [२१९ णमंसमाणे अभिमुहे विणएण पंजलिउडे पज्जुवासंति। वाइयाए-जं जं भगवं वागरेति 'एवमेयं भंते!, तहमेयं भं०!, अवितहमेयं भ०!, असंदिद्धमेयं भं०!, इच्छियमेयं भं०!, पडिच्छियमेयं भं०!, इच्छियपडिच्छियमेयं भं०!, वायाए अपडिकूलेमाणा विणएणं पज्जुवासंति। माणसियाए संवेगं जणयंता तिव्वधम्माणुरागरत्ता विगह-विसोत्तियपरिवज्जिमई अन्नत्थ कत्थइ मणं अकुव्वमाणा विणएणं पज्जुवासंति।' [१४] जब यह बात तुंगिकानगरी के श्रमणोपासकों को ज्ञात हुई तो वे अत्यन्त हर्षित और सन्तुष्ट हुए, यावत् परस्पर एक दूसरे को बुलाकर इस प्रकार कहने लगे हे देवानुप्रियो ! (सुना है कि) भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवन्त, जो कि जातिसम्पन्न आदि विशेषण विशिष्ट हैं, यावत् (यहाँ पधारे हैं) और यथाप्रतिरूप अवग्रहं ग्रहण करके संयम और तप से अपनी आत्मा को भावित करते हुए विहरण करते हैं। हे देवानुप्रियो ! तथारूप स्थविर भगवन्तों के नाम-गोत्र के श्रवण का भी महाफल होता है, तब फिर उनके सामने जाना, वन्दन-नमस्कार करना, उनका कुशल-मंगल (सुख-साता) पूछना और उनकी पर्युपासना (सेवा) करना, यावत... उनसे प्रश्न पूछ कर अर्थ-ग्रहण करना,इत्यादि बातों के (अवश्य कल्याण रूप) फल का तो कहना ही क्या ? अतः हे देवानुप्रियो! हम सब उन स्थविर भगवन्तों के पास चलें और उन्हें वन्दन-नमस्कार करें, यावत् उनकी पर्युपासना करें। ऐसा करना अपने लिए इस भव में तथा परभव में हित-रूप होगा; यावत् परम्परा से (परलोक में कल्याण का) अनुगामी होगा। इस प्रकार बातचीत करके उन्होंने उस बात को एक दूसरे के सामने (परस्पर) स्वीकार किया। स्वीकार करके वे सब श्रमणोपासक अपने-अपने घर गए। घर जाकर स्नान किया, फिर बलिकर्म (कौए, कुत्ते, गाय आदि को अन्नादि दिया, अथवा स्नान से सम्बन्धित तिलक, छापा आदि कार्य) किया। (तदनन्तर दुःस्वप्न आदि के फलनाश के लिए) कौतुक और मंगल-रूप प्रायश्चित्त किया। फिर शुद्ध (स्वच्छ), तथा धर्मसभा आदि में प्रवेश करने योग्य (अथवा शुद्ध आत्माओं के पहनने योग्य) एवं श्रेष्ठ वस्त्र पहने। थोड़े-से, (या कम वजन वाले) किन्तु बहुमूल्य आभरणों (आभूषणों) से शरीर को विभूषित किया। फिर वे अपने-अपने घरों से निकले, और एक जगह मिले। (तत्पश्चात्) वे सम्मिलित होकर पैदल चलते हुए तुंगिका नगरी के बीचोंबीच होकर निकले और जहाँ पुष्पवतिक चैत्य था, वहाँ आए। (वहाँ) स्थविर भगवन्तों (को दूर से देखते ही, उन) के पास पांच प्रकार के अभिगम करके गए। वे (पांच अभिगम) इस प्रकार हैं—(१) (अपने पास रहे हुए) सचित्त द्रव्यों (फूल, ताम्बूल आदि) का त्याग करना, (२) अचित्त द्रव्यों (सभाप्रवेश योग्य वस्त्रादि) का त्याग न करना साथ में रखना (अथवा मर्यादित करना); (३) एकशाटिक उत्तरासंग करना (एक पट के बिना सिले हुए वस्त्र दुपट्टे को (यतनार्थ मुख पर रखना); (४) स्थविर-भगवन्तों को देखते ही दोनों हाथ जोड़ना, तथा (५) मन को एकाग्र करना। यों पांच प्रकार का अभिगम करके वे श्रमणोपासक स्थविर भगवन्तों के निकट पहुँचे। निकट आकर उन्होंने दाहिनी ओर से तीन वार उनकी प्रदक्षिणा की, वन्दन-नमस्कार किया यावत् कायिक, वाचिक और मानसिक, इन तीनों प्रकार से उनकी पर्युपासना करने लगे। वे हाथ-पैरों को सिकोड़ कर शुश्रूषा करते हुए, नमस्कार करते हुए, उनके सम्मुख विनय से हाथ जोड़कर काया से पर्युपासना करते हैं। जो-जो बातें स्थविर भगवान् फरमा रहे थे, उसे सुनकर—'भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन्! यह तथ्य है, यही सत्य है, भगवन्!
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy