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________________ १८२1 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र अत्थि पुण से अंते। कालओ णं जीवे न कयावि न आसि जाव निच्चे, नत्थि पुणाइ से अंते। भावओ णं जीवे अणंता णाणपज्जवा अणंता दंसणपज्जवा अणंता चरित्तपज्जवा अणंता गरुयलहुयपज्जवा अणंता अगरुयलहुयपज्जवा, नत्थि पुण से अंते। से त्तं दव्वओ जीवे सअंते, खेत्तओ जीवे सअंते, कालओ जीवे अणंते, भावओ जीवे अणंते। [३] जे वि य ते खंदया! पुच्छा। दव्वओ णं एगा सिद्धी सअंता; खेत्तओ णं सिद्धी पणयालीसं जोयणसयसहस्साइं आयाम-विक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी वायालीसं च जोयणसयसहस्साइं तीसं च जोयणसहस्साइं दोन्नि य अउणापन्ने जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं प०, अत्थि पुण से अंते; कालओ णं सिद्धी न कयावि न आसि.; भावओ य जहा लोयस्स तहा भाणियव्वा। तत्थ दव्वओ सिद्धी सअंता, खेत्तओ सिद्धी सअंता, कालओ सिद्धी अणंता, भावओ सिद्धी अणंता। [४] जे वि य ते खंदया ! जाव कि अणंते सिद्धे ? तं चेव जाव दव्वओ णं एगे सिद्ध सअंते; खेत्तओ णं सिद्धे असंखेज्जपएसिए असंखेज्जपदेसोगाढे, अत्थि पुण से अंते; कालओ णं सिद्धे सादीए अपज्जवसिए, नत्थि पुण से अंते; भावओ सिद्धे अणंता णाणपज्जवा, अणंता दंसणपज्जवा जाव अणंता अगरुयलहुयपज्जवा, नत्थि पुण से अंते। से तं दव्वओ सिद्धे सअंते, खेत्तओ सिद्धे सअंते, कालओ सिद्धे अणंते, भावओ सिद्धे अणंते। [२४-१] (भगवान ने फरमाया-) हे स्कन्दक! तम्हारे मन में जो इस प्रकार का अध्यवसाय. चिन्तन, अभिलाषा एवं संकल्प, समत्पन्न हआ था कि 'लोक सान्त है. या अनन्त ?' उस का यह अर्थ (उत्तर) है—हे स्कन्दक! मैंने चार प्रकार का लोक बताया है, वह इस प्रकार है-द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक और भावलोक। उन चारों में से द्रव्य से लोक एक है, और अन्त वाला है, क्षेत्र से लोक असंख्य कोडाकोडी योजन तक लम्बा-चौड़ा है असंख्य कोडाकोडी योजन की परिधि वाला है, तथा वह अन्तसहित है। काल से ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें लोक नहीं था, ऐसा कोई काल नहीं है, जिसमें लोक नहीं है, ऐसा कोई काल नहीं होगा, जिसमें लोक न होगा। लोक सदा था, सदा है, और सदा रहेगा। लोक ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। उसका अन्त नहीं है। भाव से लोक अनन्त वर्णपर्यायरूप, गन्धपर्यायरूप, रसपर्यायरूप और स्पर्शपर्यायरूप है। इसी प्रकार अनन्त संस्थानपर्यायरूप, अनन्त गुरुलघुपर्यायरूप एवं अनन्त अगुरुलघुपर्यायरूप है। उसका अन्त नहीं है। इस प्रकार हे स्कन्दक! द्रव्य-लोक अन्तसहित है, क्षेत्र-लोक अन्तसहित है, काल-लोक अन्तरहित है और भावलोक भी अन्तरहित है। अतएव लोक अन्तसहित भी है और अन्तरहित भी है [२४-२] और हे स्कन्दक! तुम्हारे मन में यह विकल्प उठा था, कि यावत्-'जीव सान्त है या अन्तरहित है?' उसका भी अर्थ (स्पष्टीकरण) इस प्रकार है-'यावत् द्रव्य से एक जीव अन्तसहित है। क्षेत्र से-जीव असंख्य प्रदेश वाला है और असंख्य प्रदेशों का अवगाहन किये हुए है, अतः वह अन्तसहित है। काल से-ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें जीव न था, यावत्-जीव नित्य है, अन्तरहित है। भाव से—जीव अनन्त-ज्ञानपर्यायरूप है, अनन्तदर्शनपर्यायरूप है, अनन्तचारित्रपर्यायरूप है, अनन्त गुरुलघुपर्यायरूप है, अनन्त-अगुरुलघुपर्याय रूप है और उसका अन्त नहीं (अन्तरहित) है।
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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