________________
द्वितीय शतक : उद्देशक-१]
[१८१ सरीरयं ओरालं जाव अतीव २ उवसोभेमाणं पासइ, २ त्ता हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिए नंदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, २ त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ जाव पज्जुवासइ।
__ [२२] अतः व्यावृत्तभोजी श्रमण भगवान् महावीर के उदार यावत् शोभा से अतीव शोभायमान शरीर को देखकर कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक को अत्यन्त हर्ष हुआ, सन्तोष हुआ एवं उसका चित्त आनन्दित हुआ। वह आनन्दित, मन में प्रीतियुक्त परम सौमनस्य प्राप्त तथा हर्ष से प्रफुल्लहृदय होता हुआ जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके निकट आया। निकट आकर श्रमण भगवान् महावीर की दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, यावत् पर्युपासना करने लगा।
२३. 'खंदया!' ति समणे भगवं महावीरे खंदयं कच्चाय० एवं वायसी से नूणं तुमं खंदया! सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं णियंठेणं वेसालियसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए 'मागहा! किं सअंते लोए अणंते लोए ?' एवं तं चेव जाव जेणेव ममं अंतिए तेणेव हव्वमागए। से नूणं खंदया! अयमढे समठे ?
हंता, अत्थि। . [२३] तत्पश्चात् 'स्कन्दक!' इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमण भगवान् महावीर ने कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक से इस प्रकार कहा हे स्कन्दक! श्रावस्ती नगरी में वैशालिक श्रावक पिंगल निर्ग्रन्थ ने तुमसे इस प्रकार आक्षेपपूर्वक पूछा था कि—मागध! लोक सान्त है या अनन्त! आदि। (उसने पांच प्रश्न पूछे थे, तुम उनका उत्तर नहीं दे सके, इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् जान लेना) यावत्-उसके प्रश्नों से व्याकुल होकर तुम मेरे पास (उन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए) शीघ्र आए हो। हे स्कन्दक! क्या यह बात सत्य है ?
(स्कन्दक ने कहा-) 'हां, भगवन्! यह बात सत्य है।'
२४.[१] जे वि य ते खंदया! अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था—किं सअंते लोए, अणंते लोए ? तस्स वि य णं अयमढें—एवं खलु मए खंदया! चउव्विहे लोए पण्णत्ते, तं जहा—दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ। दव्वओ णं एगे लोए सअंते। खेत्तओ णं लोए असंखेज्जाओ जोयणकोडाकाडीओ आयाम-विक्खंभेणं, असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवेणं प०, अत्थि पुण से अंते। कालओ णं लोए ण कयावि न आसी न कयावि न भवति न कयावि न भविस्सति, भुविं च भवति य भविस्सइ य, धुवे णियए सासते अक्खए अव्वए अवट्ठिए णिच्चे, णत्थि पुण से अंते। भावओ णं लोए अणंता वण्ण्पज्जवा गंध० रस० फासपज्जवा, अणंता संठाणपज्जवा, अंणता गरुयलहुयपज्जवा, अणंता अगरुयलहुयपज्जवा, नत्थि पुण से अंते। से तं खंदगा! दव्वओ लोए सअंते, खेत्तओ लोए सअंते, कालतो लोए अणंते, भावओ लोए अणंते।
[२]जे वि य ते खंदया ! जाव सअंते जीवे, अणंते जीवे ? तस्स वियणं अयमढे एवं खलु जाव दव्वओ णं एगे जीवे सअंते। खेत्तओ णं जीवे असंखेन्जपएसिए असंखेज्जपदेसोगाढे,