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________________ १७०] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [उ.] गौतम! वायुकाय के चार शरीर कहे गए हैं; वे इस प्रकार—(१) औदारिक, (२) वैक्रिय, (३) तैजस और (४) कार्मण। इनमें से वह औदारिक और वैक्रिय शरीर को छोड़कर दूसरे भव में जाता है, इस अपेक्षा से वह शरीररहित जाता है और तैजस तथा कार्मण शरीर को साथ लेकर जाता है, इस अपेक्षा से वह शरीरसहित (सशरीरी) जाता है। इसलिए हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि वायुकाय मर कर दूसरे भव में कथञ्चित् (किसी अपेक्षा से) सशरीरी जाता है और कथञ्चित् अशरीर जाता है। विवेचन वायुकाय के श्वासोच्छ्वास, पुनरुत्पत्ति, मरण एवं शरीरादिसम्बन्धी प्रश्नोत्तर–प्रस्तुत दो सूत्रों में वायुकाय के श्वासोच्छ्वास आदि से सम्बन्धित जिज्ञासाओं का समाधान अंकित है। - वायुकाय के श्वासोच्छ्वास-सम्बन्धी शंका-समाधान सामान्यतया श्वासोच्छ्वास वायुरूप होता है, अतः वायुकाय के अतिरिक्त पृथ्वी, जल, तेज एवं वनस्पति तो वायुरूप में श्वासोच्छ्वास ग्रहण करते हैं, किन्तु वायुकाय तो स्वयं वायुरूप है तो उसे श्वासोच्छ्वास के रूप में क्या दूसरे वायु की आवश्यकता रहती है, यही इस शंका के प्रस्तुत करने का कारण है। दूसरी शंका–'यदि वायुकाय दूसरी वायु को श्वासोच्छ्वास के रूप में ग्रहण करता है, तब तो दूसरी वायु को तीसरी वायु की, तीसरी को चौथी की आवश्यकता रहेगी। इस तरह अनवस्थादोष आ जायेगा। इस शंका का समाधान यह है कि वायुकाय जीव है, उसे दूसरी वायु के रूप में श्वासोच्छ्वास की आवश्यकता रहती है, लेकिन ग्रहण की जाने वाली वह दूसरी वायु सजीव नहीं, निर्जीव (जड़) होती है, उसे किसी दूसरे सजीव वायुकाय की श्वासोच्छ्वास के रूप में आवश्यकता नहीं रहती। इसलिए अनवस्थादोष नहीं आ सकता। इसके अतिरिक्त यह जो वायुरूप उच्छ्वास-निःश्वास हैं, वे वायुकाय के औदारिक और वैक्रियशरीररूप नहीं हैं, क्योंकि आन-प्राण तथा उच्छ्वास-निःश्वास के योग्य पुद्गल औदारिक शरीर और वैक्रिय शरीर के पुद्गलों की अपेक्षा अनन्तगुण-प्रदेशवाले होने से सूक्ष्म हैं, अतएव वे (उच्छ्वास-निःश्वास) चैतन्यवायुकाय के शरीररूप नहीं है। निष्कर्ष यह कि वह उच्छ्वास-नि:श्वासरूप वायु जड़ है, उसे उच्छ्वास-नि:श्वास की जरूरत नहीं होती। वायुकाय आदि की कायस्थिति—पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय, इन चार की कायस्थिति असंख्य अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी तक है तथा वनस्पतिकाय की कायस्थिति अनन्त अवसर्पिणीउत्सर्पिणीपर्यन्त है। वायुकाय का मरण स्पृष्ट होकर ही–वायुकाय स्वकायशस्त्र से अथवा परकायशस्त्र से स्पृष्ट हो (टकरा) कर ही मरण पाता है, अस्पृष्ट होकर नहीं। यह सूत्र सोपक्रमी आयु वाले जीवों की अपेक्षा से है। मृतादीनिर्ग्रन्थों के भवभ्रमण एवं भवान्तकरण के कारण ८.[१] मडाई णं भंते! नियंठे नो निरुद्धभवे, नो निरुद्धभवपवंचे, नो पहीणसंसारे, णो पहीणसंसारवेदणिज्जे, णो वोच्छिण्णसंसारे, णो वोच्छिण्णसंसारवेदणिज्जे, नो निट्ठियढे नो निट्ठियट्ठकरणिज्जे पुणरवि इत्तत्थं हव्वमागच्छति ? 'असंखोसप्पिणी-ओस्सप्पिणी उ एंगिदियाण चउण्हं। ता चेव उ अणंता, वणस्सइए उ बोधव्वा॥' -संग्रहणीगाथा भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक ११० २.
SR No.003442
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapati Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages569
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_bhagwati
File Size12 MB
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